________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 217 यदपि उद्योतकरेणाभ्यधायि; ‘एतेनैव प्रतिज्ञाविरोधोप्युक्तः, यत्र प्रतिज्ञा स्ववचनेन विरुध्यते यथा "श्रमणा गर्भिणी' नास्त्यात्मेति वाक्यांतरोपप्लवादिति' तदपि न युक्तमित्याह प्रतिज्ञा च स्वयं यत्र विरोधमधिगच्छति / नास्त्यात्मेत्यादिवत्तत्र प्रतिज्ञाविधिरेव न // 148 // तद्विरोधोद्भावनेन त्यागस्यावश्यंभावित्वात् / स्वयमत्यागान्नेयं प्रतिज्ञाहानिरिति चेत् न, तद्विरुद्धत्वप्रतिपत्तेरेव न्यायबलात्त्यागरूपत्वात्। यत्किंचिदवदतोपि प्रतिज्ञाकृतिसिद्धर्वदतोपि दोषत्वेनैव तत्त्यागस्य व्यवस्थितेः / यदपि तेनोक्तं हेतुविरोधोपि प्रतिज्ञाविरोध एव एतेनोक्तो यत्र हेतुः प्रतिज्ञया बाध्यते यथा सर्वं पृथक् समूहे भावशब्दप्रयोगादिति, तदपि न साधीय इत्याह __ क्योंकि ‘तपस्विनी' कहने पर गर्भवती नहीं हो सकती और गर्भवती होने पर तपस्विनी नहीं कह सकते। अत: तपस्विनी को गर्भवती कहना स्ववचन बाधित है। अत: जहाँ प्रतिज्ञाविरोध के लक्षण में प्रतिज्ञा स्ववचन से विरुद्ध हो जाती है, वहाँ इतना अन्य वाक्य का उपस्कार कर लेना चाहिए। जैनाचार्य कहते हैं कि यह उद्योतकर का कथन युक्तिसंगत नहीं है। इसी बात को आचार्य कहते हैं - - जिस प्रकरण में स्ववचन के द्वारा ही धर्म, धर्मी का समुदाय वचन स्वरूप प्रतिज्ञा स्वयं विरोध को प्राप्त हो जाती है; जैसे कोई जीव कहता है कि आत्मा नहीं है, 'मेरी माता वन्ध्या है' इत्यादि वाक्य स्ववचन बाधित हैं। ऐसे प्रकरण में प्रतिज्ञा की विधि ही नहीं है अर्थात् स्ववचन बाधित ही प्रतिज्ञा की हानि है॥१४८॥ प्रतिवादी के द्वारा प्रतिज्ञा में दोषों का उद्भावन कर देने से वादी की प्रतिज्ञा का त्याग अवश्यंभावी (अवश्य ही हो जाता) है। इसलिए प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान प्रतिज्ञाहानि से भिन्न नहीं है। . “प्रतिवादी के द्वारा दोषों का उत्थापन करने पर भी वादी स्वयं प्रतिज्ञा का त्याग नहीं करता हैइसलिए प्रतिज्ञा हानि नहीं है," ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि प्रतिवादी के द्वारा हेतु में दोषों का उत्थापन कर देने पर वादी को स्वकीय प्रतिज्ञा वाक्य के विरुद्धत्व का ज्ञान (निर्णय) हो जाना ही न्यायमार्ग के सामर्थ्य से प्रतिज्ञा का त्याग कर देना है। स्ववचन के विरुद्ध बोलने वाले वादी के वाक्य में यदि प्रतिवादी दोषों का उत्थापन करता है और वादी उसके प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोलता है तो भी वादी के प्रतिज्ञा का छेद हो जाता है और वादी यदि यद्वा तद्वा उत्तर देता है तो भी वादी का कथन दोष सहित होने से उस प्रतिज्ञाहानि की व्यवस्था कर दी जाती है अर्थात् प्रतिज्ञाहानि हो जाती है। इसलिए प्रतिज्ञाहानि से भिन्न प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रह स्थान मानना उपयुक्त नहीं है। उद्योतकर ने यह कहा था कि पूर्वोक्त कथन से हेतु का विरोध होना ही प्रतिज्ञा विरोध नामक निग्रह स्थान है अर्थात् हेतुविरोध नामक निग्रहस्थान नहीं मानकर प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान में उसका अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। जिस प्रकरण में प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा हेतु वाक्य बाधित हो जाता है, जैसे सम्पूर्ण पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं, समुदाय में भाव या पदार्थ शब्द का प्रयोग होने से। अर्थात् इस अनुमान में पृथक् भाव को सिद्ध करने वाली प्रतिज्ञा में भाव शब्द द्वारा समुदाय का कथन करना रूप हेतु विरुद्ध पड़ता है। इसलिए उद्योतकर का कथन श्रेष्ठ नहीं है। इसी को विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट करते हैं -