________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 226 पक्षस्य प्रतिषेधे हि तूष्णींभावो धरेक्षणं / व्योमेक्षणं दिगालोकः खात्कृतं चपलायितम् / 184 / हस्तास्फालनमाकंपः प्रस्वेदाद्यप्यनेकधा। निग्रहांतरमस्यास्तु तत्प्रतिज्ञांतरादिवत्॥१८५॥ हेत्वंतरं विचारयन्नाहअविशेषोदिते हेतौ प्रतिषिद्धे प्रवादिना। विशेषमिच्छतः प्रोक्तं हेत्वंतरमपीह यत् // 186 // तदेवमेव संभाव्यं नान्यथेति न निश्चयः। परस्मिन्नपि हेतौ स्यादुक्ते हेत्वंतरं यथा // 187 // यथा च प्रकृते हेतौ दोषवत्यपि दर्शिते। परस्य वचनं हेतोर्हेत्वंतरमुदाहृतम्॥१८८॥ तथा निदर्शनादौ च दृष्टांताद्यंतरं न किम् / निग्रहस्थानमास्थेयं व्यवस्थाप्यातिनिश्चितम् // 189 / यदि हेत्वंतरेणैव निगृहीतस्य वादिनः। दृष्टांताद्यंतरं तत्स्यात्कथायां विनिवर्तनात् // 190 // तदानैकांतिकत्वादिहेतुदोषेण निर्जिते। मा भूद्धत्वंतरं तस्य तत एवाविशेषतः // 191 // फटकारना, शरीर कम्पित हो जाना, पसीना छूटना, आदि अनेक प्रकार के निग्रह स्थान हो सकते हैं। जैसे प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञासंन्यास, प्रतिज्ञान्तर आदि भिन्न निग्रहस्थान मान लिये गये हैं॥१८४-१८५॥ अत: प्रतिज्ञासंन्यास को भी प्रतिज्ञाहानि में गर्भित कर लेना चाहिए। अब हेत्वन्तर निग्रहस्थान पर विचार करते हुए जैनाचार्य कहते हैं वादी के द्वारा विशेषता रहित हेतु के कथन पर पुन: प्रतिवादी के द्वारा उसे हेतु का खण्डन कर देने पर हेतु में कुछ विशेषता लगाने की इच्छा करने वाले वादी का हेत्वन्तर निग्रह स्थान कहा गया है। अर्थात् नैयायिकों ने उसे हेत्वन्तर निग्रहस्थान माना है। वह इसी प्रकार संभव है। अन्यथा (अन्यप्रकारों से) हेत्वन्तर निग्रह स्थान संभव नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे नैयायिक के दूसरे हेतु का कथन कर देने पर हेत्वन्तर निग्रह स्थान कहा गया है और जिस प्रकार वादी के प्रकरण प्राप्त हेतु को प्रतिवादी के द्वारा दोषयुक्त दिखला देने पर (दोषयुक्त सिद्ध कर देने पर) दूसरे हेतु का कथन करना वादी का हेत्वन्तर निग्रह स्थान कहा गया है, उसी प्रकार वादी के द्वारा प्रकृत साध्य को सिद्ध कर करने के लिए प्रयुक्त दृष्टान्त, उपनय आदि में प्रतिवादी के द्वारा उन दृष्टान्त आदि को दोषयुक्त सिद्ध कर देने पर वादी का हेत्वन्तर निग्रह स्थान के समान दृष्टान्तर, उपनयान्तर आदि निग्रह स्थान क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा। उस वादी के द्वारा पश्चात् अधिक निश्चित किये गये दृष्टान्त आदिकों को व्यवस्थापित कर कह दिया गया है। वे दष्टांतर आदि निग्रहस्थान हो जायेंगे। अर्थात हेत की त्रटि होने पर जैसे विशेषण लगाकर अन्य हेतु का प्रयोग करने पर हेत्वन्तर नामक निग्रह स्थान हो जाता है, उसी प्रकार उदाहरण में भी न्यूनता दिखलाई जाती है। वह दृष्टान्तर निग्रहस्थान क्यों नहीं कहा जाता है? // 186-189 // - यदि नैयायिक यों कहे कि अकेले हेत्वन्तर से ही निग्रह को प्राप्त हो चुके वादी के प्रति दृष्टान्तादि अन्तर का कथन करना तो उतने से ही हो जाएगा इस कारण वाद कथा में विशेष रूप से उनकी निवृत्ति की गई है। अर्थात् हेत्वन्तर के द्वारा ही वादी जब निग्रहस्थान हो जाता है, तब दृष्टान्तान्तर के कथन करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार नैयायिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो प्रतिवादी