________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 229 यदुक्तं वर्णक्रमो निर्देशवन्निरर्थकं / तद्यथा-नित्यः शब्दो जबगडदशस्त्वाज्झभघढधष्वदिति // तत्सर्वथार्थशून्यत्वात् किं साध्यानुपयोगतः। द्वयोरादिविकल्पोत्रासंभवादेव तादृशः॥१९८॥ वर्णक्रमादिशब्दस्याप्यर्थवत्त्वात्कथंचन / तद्विचारे क्वचिदनुत्कार्येणार्थेन योगतः॥१९९॥ द्वितीयकल्पनायां तु सर्वमेव निरर्थकम् / निग्रहस्थानमुक्तं स्यात्सिद्धवन्नोपयोगवत् // 200 / / तस्मान्नेदं पृथग्युक्तं कक्षापिहितकादिवत् / कथाविच्छेदमानं तु भवेत्पक्षांतरोक्तिवत् // 201 // तथाहि-ब्रुवन्न साध्यं न साधनं जानीते असाध्यसाधनं चोपादत्ते इति निगृह्यते स्वपक्षं साधयतान्येन नान्यथा, न्यायविरोधात् / यदप्युक्तं, “परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थं भाष्ये चोदनाहतमसामर्थ्यं च संवरणान्निग्रहस्थानं ससामर्थ्य चाज्ञानमिति, तदिह विचार्यते न्याय दर्शन म गौतम ऋषि ने कहा है कि वर्णों के क्रम का नाम मात्र कथन करने के समान निरर्थक नामक निग्रहस्थान है, जैसे शब्द (पक्ष) नित्य है (साध्य) ज ब ग ड़ दश्पना होने से (हेतु) झ भ घ ढ ध ष के समान (दृष्टान्त)। इस कथन में वाच्य-वाचक भाव नहीं होने से अर्थज्ञान नहीं होता है। और अर्थज्ञान नहीं होने से वादी स्वयमेव निग्रहस्थान को प्राप्त हो जाता है। __ जैनाचार्य कहते हैं कि निरर्थक निग्रहस्थान सर्वथा अर्थशून्य होने से वक्ता का निग्रह करता है? अथवा प्रकृत साध्य के साधन में उपयोगी नहीं होने से निरर्थक वचन वक्ता का निग्रह करता है? - इन दोनों विकल्पों में प्रथम विकल्प (सर्वथा अर्थशून्यता) तो संभव नहीं है- क्योंकि वैसे जगत् में सभी अर्थों में शून्य शब्दों का होना असंभव है। वर्णक्रम (रुदन पठन) आदि शब्दों के भी किसी अपेक्षा अर्थसहितपना है। सूक्ष्म दृष्टि से उसका विचार करने पर क्वचित् अनुकरण कराना रूप अर्थ की अपेक्षा सभी शब्द अर्थवान हैं। किसी-न-किसी रूप से सभी शब्दों का अर्थ के साथ योग रहता ही है अर्थात् अर्थ से सर्वथा शून्य कोई शब्द ही नहीं है।।१९८-१९९॥ _.. ' दूसरे पक्ष की, साध्य के साधन में निरुपयोगी होने से निरर्थक शब्द वक्ता का निग्रह करने वाले हैं, इस पक्ष की कल्पना करने पर सर्व निग्रह स्थान निरर्थक निग्रह स्थान हो जायेंगे। क्योंकि निरर्थक निग्रह स्थान के समान प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञासंन्यास, प्रतिज्ञानन्तर आदि सभी निग्रहस्थान साध्य के साधन में अनुपयोगी होने से सभी निग्रह स्थानों का निरर्थक निग्रहस्थान में अन्तर्भाव हो जायेगा। इसलिए निरर्थक निग्रह स्थान को पृथक् मानना युक्तिसंगत नहीं है। जैसे कांछ ढकना, कंपना, हाथ फटकारना आदि पृथक् निग्रह स्थान नहीं हैं। पक्षान्तर के कथन के समान इस निरर्थक निग्रह स्थान से वाद कथा का केवल विच्छेद हो सकता है। वादी एवं प्रतिवादी की जय, पराजय नहीं हो सकती॥२००-२०१॥ तथाहि (अनुमान वाक्य से इसको सिद्ध करते हैं) निरर्थक शब्दों को कहने वाला मानव साध्य और साधन को नहीं जानता है। जो वचन साध्य के साधक नहीं हैं वे सर्व निरर्थक हैं। अत: उनका कथन करने वाला निग्रहस्थान को प्राप्त हो जाता है। परन्तु जो वादी या प्रतिवादी स्वकीय पक्ष को सिद्ध कर चुका है वह दूसरे के द्वारा निग्रह स्थान को प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि पक्ष की सिद्धि कर देने पर भी यदि निग्रहस्थान कहा जावेगा तो न्यायग्रन्थों से विरोध को प्राप्त होगा।