________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 206 तत्रेदं चिंत्यते तावत्तन्निराकरणं किमु। निर्मुखीकरणं किं वा वाग्मिस्तत्तत्त्वदूषणम् // 14 // नानादिकल्पना युक्ता परानुग्राहिणां सतां / निर्मुखीकरणावृत्तेर्बोधिसत्त्वादिवत्क्वचित् // 15 // द्वितीयकल्पनायां तु पक्षसिद्धेः पराजयः। सर्वस्य वचनैस्तत्त्वदूषणे प्रतियोगिनाम् // 16 // सिद्ध्यभावस्तु योगिनामसति प्रतियोगिनि / साधनाभावतस्तत्र कथं वादे पराजयः // 17 // यदैव वादिनोः पक्षः प्रतिपक्षपरिग्रहः। राजन्वति सदेकस्य पक्षासिद्धस्तथैव हि // 18 // सा तत्र वादिनो सम्यक् साधनोक्तेर्विभाव्यते। तूष्णीभावाच्च नान्यत्र नान्यदेत्यकलंकवाक।।९९॥ तूष्णीभावोथवा दोषानाशक्तिः सत्यसाधने। वादिनोक्ते परस्येष्टा पक्षसिद्धिर्न चान्यथा // 100 // इन दोनों पक्षों में से आदि (प्रथम) पक्ष की कल्पना करना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि बोधिसत्त्व आदि विद्वानों के समान दूसरों पर अनुग्रह करने वाले सज्जन पुरुषों की कहीं भी किसी को चुप करने की प्रवृत्ति नहीं होती है अर्थात् जैसे बोधिसत्त्व की प्रवृत्ति सबके ऊपर वात्सल्य भावस्वरूप होती है, उसी प्रकार सभ्य पुरुषों की प्रवृत्ति दूसरों का अनुग्रह करने वाली होती है, तत्त्व को समझाने की होती है, उसको चुप करने की नहीं॥९४-९५॥ यदि युक्तिपूर्वक तत्त्वों में दूषण देना रूप द्वितीय पक्ष की कल्पना करने पर तो पक्ष की सिद्धि हो जाना ही पर (दूसरे) की पराजय है। तथा समीचीन हेतु रूप वचनों के द्वारा प्रतियोगी (प्रतिकूल बोलने के) के तत्त्व में (पक्ष में) दूषण देना ही पराजय है। अर्थात् स्वपक्ष सिद्धि और पर पक्ष निराकरण ही स्वजय और पर की पराजय है। प्रतियोगी वादी के नहीं होने पर और योगी के (अनुकूल बोलने वाले के) समीप समीचीन हेतु का अभाव होने से वादी के पक्ष की सिद्धि का अभाव है। अत: वादी के द्वारा प्रतिवादी की पराजय कैसे हो सकती है? // 96-97 // “जिस काल में उचित राजा के सभापति होने पर न्यायी राजा के द्वारा वादी और प्रतिवादी के पक्ष और प्रतिपक्ष का ग्रहण होता है वहाँ एक वादी के समीचीन पक्ष की सिद्धि हो जाने पर प्रतिवादी के प्रतिपक्ष की असिद्धि हो जाती है; उसी प्रकार वादी के द्वारा समीचीन निर्दोष हेतु का कथन करने से और प्रतिवादी के चुप हो जाने पर (प्रत्युत्तर नहीं देने पर) वादी के पक्ष की सिद्धि और प्रतिवादी के पक्ष की असिद्धि जान ली जाती है। अन्यत्र (अन्य स्थान में) और अन्य काल वा अन्य प्रकार से पक्ष की सिद्धि नहीं जानी जात है"। यह अकलंक देव का निर्दोष वाक् (वचन) है॥९८-९९ // वादी के द्वारा निर्दोष साधन का कथन करने पर जब प्रतिवादी चुप हो जाता है अथवा वादी के निर्दोष हेतु में दोषों का उत्थापन (उद्भावन) करने के लिए असमर्थ हो जाता है तब वादी के पक्ष की सिद्धि हो जाती है, अन्यथा वादी के पक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती // 100 // इस प्रकार समीचीन हेतु के द्वारा पक्ष की सिद्धि मानने पर किसी भी वादी या प्रतिवादी के अभीष्ट तत्त्व की सिद्धि करने में कोई आक्षेप नहीं आता है। दूसरे के पक्ष का निराकरण करने वाले की कीर्ति होती है और प्रतिवादी की अपकीर्ति को करने वाले की पराजय होती है। इस प्रकार स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष