________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 208 विनश्वरस्वभावोयं शब्द ऐंद्रियकत्वतः। यथा घट इति प्रोक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते // 106 // दृष्टमैंद्रियकं नित्यं सामान्यं तद्वदस्तु नः / शब्दोपीति स्वलिंगस्य ज्ञानात्तेनापिसंमतं // 107 / / कामं घटोपि नित्योस्तु सामान्यं यदिशाश्वतं / इत्येवं भाष्यमाणेन प्रतिज्ञोत्पद्यते कथम् // 108 // दृष्टांतस्य परित्यागात्स्वहेतोः प्रकृतक्षतेः / निगमांतस्य पक्षस्य त्यागादिति मतं यदि // 109 // तथा दृष्टांतहानिः स्यात्साक्षादियमनाकुला। साध्यधर्मपरित्यागाद् दृष्टांते स्वेष्टसाधने // 110 // पारंपर्येण तु त्यागो हेतूपनययोरपि / उदाहरणहानौ हि नानयोरस्ति साधुता // 111 // निगमस्य परित्यागः पक्षबाधेपि वा स्वयं / तथा च न प्रतिज्ञातहानिरेवेति संगतम् // 112 // पक्षत्यागात्प्रतिज्ञायास्त्यागस्तस्य तदाश्रितेः। पक्षत्यागोपि दृष्टांतत्यागादिति यदीष्यते॥११३॥ हेत्वादित्यागतोपि स्यात् प्रतिज्ञात्यजनं तदा। तत: पक्षपरित्यागाविशेषान्नियमः कुतः॥११४॥ “इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से यह शब्द अनित्य है (विनश्वर स्वभाव वाला है), जैसे इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से घट विनाशशील हैं।" ऐसा वादी के द्वारा कहने पर प्रतिवादी दूषण उठाता है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय सामान्य पदार्थ नित्य है, उसी के समान हमारे यहाँ शब्द भी नित्य है। इस प्रकार स्वलिंग (इन्द्रियजन्यत्व) का ज्ञान होजाने से वादी ने भी उसको स्वीकार कर लिया है कि यदि सामान्य जाति नित्य है तो यथेष्ट रूप से घट भी नित्य हो सकता है। इस प्रकार नैयायिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाले वादी अपने दृष्टान्त घट का नित्यपना स्वीकार करते . हुए प्रतिज्ञा कैसे उत्पन्न कर सकता है? // 106-107-108 // दृष्टान्त का परित्याग हो जाने से अपने हेतु से, प्रकरण प्राप्त साध्य की क्षति हो जाने से और निगमन पर्यन्त पक्ष का त्याग हो जाने से (यदि) प्रतिज्ञा हानि मानते हैं, अर्थात् दृष्टान्त की हानि होने से प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन पाँचों की हानि हो जाती है। इस प्रकार भाष्यकार के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो स्वइष्ट साधक दृष्टान्त में साध्य धर्म (अनित्य) का परित्याग हो जाने से यह साक्षात् निराकुल दृष्टान्त की हानि है अर्थात् इसको प्रतिज्ञाहानि न कहकर दृष्टान्त हानि कहना चाहिए॥१०९११०॥ यदि भाष्यकार कहे कि यद्यपि साक्षात् रूप से दृष्टान्त की हानि है तथापि परम्परा से प्रतिज्ञा की ही हानि होती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि परम्परा से तो हेतु और उपनय की हानि भी हो जाती है। क्योंकि उदाहरण की हानि हो जाने पर नियम से हेतु और उपनय की समीचीनता भी नहीं रह सकती। तथा प्रतिज्ञास्वरूप पक्ष के बाधित हो जाने पर निगमन का परित्याग भी स्वयं हो जाता है। इसलिए प्रतिज्ञाहानि ही निग्रह स्थान है। ऐसा भाष्यकार का एकान्त आग्रह करना सुसंगत नहीं है।।१११-११२॥ ___ भाष्यकार का कथन है कि पक्ष के आश्रित होने के कारण पक्ष का त्याग होने से प्रतिज्ञा का भी त्याग हो जाता है। तथा दृष्टान्त का त्याग होने से पक्ष का त्याग हो जाता है। इस प्रकार भाष्यकार ने स्वीकार किया है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो हेतु, उपनय आदि के त्याग से भी प्रतिज्ञा का त्याग