________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 195 क्वचित्साध्यविशेषं हि न वादी प्रतिपित्सते / स्वयं विनिश्चितार्थस्य परबोधाय वृत्तितः॥५०॥ प्रतिवादी च तस्यैव प्रतिक्षेपाय वर्तनात् / जिज्ञासितो न सभ्याच सिद्धांतद्वयवेदिनः // 51 // स्वार्थानुमाने वाद्ये च जिज्ञासितेति चेन्मतं / वादे तस्याधिकारः स्यात् परप्रत्ययनादृते // 52 // जिज्ञापयिषितात्मेह धर्मी पक्षो यदीष्यते। लक्षणद्वयमायातं पक्षस्य ग्रंथघातिने // 53 // तथानुष्णोग्निरित्यादिः प्रत्यक्षादिनिराकृतः। स्वपक्षं स्यादतिव्यापि नेदं पक्षस्य लक्षणं // 54 // लिंगात्साधयितुं शक्यो विशेषो यस्य धर्मिणः / स एव पक्ष इति चेत् वृथा धर्मविशेषवाक् 55 / प्रतिवादी दोनों की जानने की इच्छा नहीं है। तथा सभ्य (सभासद) भी जानने के इच्छुक नहीं हैं। क्योंकि सभ्य (प्राश्निक) पुरुष तो वादी और प्रतिवादी दोनों के सिद्धान्त को जानने वाले होते हैं। इसलिए दोषयुक्त होने से जिज्ञासिता विशेष धर्मी को पक्ष कहना युक्तिसंगत नहीं है।४९-५०-५१॥ “यद्यपि परार्थानुमान और जीतने की इच्छा रखने वालों के वाद जिज्ञासित विशेष धर्मी पक्ष नहीं हैं, परन्तु स्वार्थ अनुमान में तथा आदि में कथित वीतराग पुरुषों के संवाद में तो जिज्ञासित विशेष धर्मी पक्ष हो सकता है"-ऐसा वैशेषिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि दूसरों को युक्तियों के द्वारा ज्ञान कराया जाता है। उस वाद को छोड़कर अन्य वाद में जिज्ञासित विशेष धर्मी पक्ष हो सकता है अर्थात् तात्त्विक संवाद में जिज्ञासित विशेष धर्मी पक्ष बन सकता है॥५२॥ "यदि जीतने की इच्छा रखने वाले पुरुषों के वाद में जिस साध्यवान धर्मी की ज्ञापित कराने (समझाने) की इच्छा उत्पन्न हो चुकी है, वह धर्मी पक्ष कहलाता है अर्थात् जिज्ञापयिषित धर्मी को पक्ष कहते हैं, इस प्रकार कहने वाले वैशेषिक के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि-इस प्रकार पक्ष का लक्षण करने पर जिज्ञासित विशेष धर्मी पक्ष और जिज्ञापयिषित धर्मी पक्ष-ये दो पक्ष के लक्षण हो जाते हैं जो पक्ष के लक्षण को कहने वाले ग्रन्थ के घातक हैं अर्थात् लक्षण तो एक होता है। दो लक्षण कहने से अपसिद्धान्त की प्राप्ति होती है। अत: वैशेषिक के द्वारा माना गया यह पक्ष का लक्षण असंभव दोष से दूषित है॥५३॥ . तथा अग्नि अनुष्ण (शीतल) है इत्यादि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित पक्ष भी हो सकता है। अर्थात् जिज्ञासु को अग्नि का अनुष्णपना जानने की भी इच्छा हो सकती है। . परन्तु जिज्ञासु की इच्छा को पक्ष मानना, पक्ष का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से युक्त होने से समीचीन नहीं है अर्थात् विपरीत पक्ष में लक्षण जाता है, अपक्ष में लक्षण जाता है अत: पक्ष का लक्षण निर्दोष नहीं है॥५४॥ __जिस धर्मी के साध्य रूप विशेष धर्म का ज्ञापक हेतु से सिद्ध करना शक्य होता है वही पक्ष कहलाता है। इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो साध्य रूप विशेष धर्म का कथन करना व्यर्थ होगा अर्थात् केवल धर्मी का ही कथन करना चाहिए। साध्यवान् धर्मी को पक्ष कहने की आवश्यकता नहीं है॥५५॥