________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 197 का पुन: पक्षस्य सिद्धिरित्याह सभ्यप्रत्यायनं तस्य सिद्धिः स्याद्वादिनोथवा। प्रतिवादिन इत्येष निग्रहोन्यतरस्य तु // 62 // वादिनः स्वपक्षप्रत्यायनं सभायां स्वपक्षसिद्धिः, प्रतिवादिनः स एव निग्रहः, प्रतिवादिनोथवा तत्स्वपक्षसिद्धिर्वादिनो निग्रह इत्येतत्प्रत्येयम् // तथोक्तं / “स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः। नासाधनांगवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः॥"इति॥ अत्र परमतमनूद्य विचारयतिअसाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः। निग्रहस्थानमन्यत्तन्न युक्तमिति केचन // 63 // स्वपक्षं साधयन् तत्र तयोरेको जयेद्यदि / तूष्णीभूतं ब्रुवाणं वा यत्किंचित्तत्समंजसम् // 64 // अन्य पुरुषों के निश्चय की उत्पत्ति करने के लिए विचारशील तार्किक पुरुषों के द्वारा परार्थानुमान का प्रयोग किया जाता है। अत: पक्ष का यही लक्षण ठीक है। अन्यथा-उस पक्ष के लक्षण के करने में असंभव आदि दोषों की प्राप्ति हो जाने का प्रसंग आता है। ___पक्ष की सिद्धि.क्या है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं- सभा में स्थित सभ्य जनों को प्रतिज्ञान कराने के लिए वादी के उस उपर्युक्त पक्ष की सिद्धि होती है। अथवा-वादी और प्रतिवादी दोनों में से एक प्रतिवादी का ही निग्रह होगा। अथवा प्रतिवादी के उस प्रतिज्ञा रूप पक्ष की सभ्यों के सन्मुख सिद्धि हो जाना ही वादी का निग्रह हो जाना है॥६२॥ __सभा में निजपक्ष का ज्ञापन कराना ही वादी के स्व पक्ष की सिद्धि है और वही प्रतिवादी का निग्रह है। अथवा प्रतिवादी के अपने पक्ष की सिद्धि हो जाना ही वादी का निग्रह है। ऐसा विश्वास करना चाहिए। सो ही कहा है - वादी और प्रतिवादी में से किसी एक के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने पर दूसरे वादी का निग्रह हो जाता है। वादी के लिए आवश्यक हेतु के अंगों का कथन नहीं करना निग्रह स्थान नहीं है। और दोनों के दोषों का उद्भावन नहीं करना भी निग्रह स्थान नहीं है। अपितु स्वकीय पक्ष की सिद्धि हो जाना ही वादी की जय और प्रतिवादी की पराजय है। .. अब यहाँ पर बौद्ध मत का अनुवाद करके आचार्य विचार करते हैं - ... “कोई (सौगत मतानुयायी) कहता है कि यदि वादी प्रतिज्ञा आदि अनुमान के अंगों का कथन नहीं करता है और प्रतिवादी वादी के हेतु में दोषों का उद्भावन नहीं करता है, तो वादी प्रतिवादी दोनों ही निग्रह स्थान को प्राप्त होते हैं। इनसे अन्य कोई निग्रह स्थान युक्तिसंगत नहीं है।" इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि - वादी और प्रतिवादी-इन दोनों में कोई एक यदि स्वपक्ष को सिद्ध करता हुआ कुछ भी समंजस (समीचीन) कहने वाले को चुप करके जीतता है (अर्थात् केवल हेतु के पाँचों अंगों का कथन नहीं करना ही वादी का निग्रह स्थान नहीं है) अपितु प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि हो जाने पर वादी का असाधनांग वचन वादी की पराजय करा देता है। अतः स्वपक्ष की सिद्धि करना ही प्रतिवादी की पराजय है॥६३-६४ //