________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 199 यद्वस्तु शब्दानित्यत्ववादिनां साध्यमानं वादिना, दूष्यमाणं च प्रतिवादिना तदेव वादिनः पक्षः शक्यत्वादिविशेषणस्य साधनविषयस्य पक्षत्वव्यवस्थापनात् / तथा यदूषणवादिना शब्दादि वस्तु अनित्यत्वादिना साध्यमानं वादिना दूष्यमाणंत देव प्रतिवादिनः पक्ष इति व्यवतिष्ठते न पुन: साधनवचनं वादिनः, दूषणवचनं च प्रतिवादिनः, पक्ष इति विवादाभावात्तयोस्तत्र विवादे वा यथोक्तलक्षण एव पक्ष इति तस्य सिद्धेरेकस्य जयोऽपरस्य पराजयो व्यवतिष्ठते, न पुनरसाधनांगवचनमात्रमदोषोद्भावनमानं वा। पक्षसिद्ध्यविनाभाविनस्तु साधनांगस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानं प्रतिपक्षसिद्धौ सत्यां प्रतिवादिन इति न निवार्यत एव / तथाहि पक्षसिद्ध्यविनाभावि साधनावचनं ततः। निग्रहो वादिनः सिद्धः स्वपक्षे प्रतिवादिनि // 69 // सामर्थ्यात् प्रतिवादिनः सदूषणानुद्भावनं निग्रहाधिकरणं वादिनः पक्षसिद्धौ सत्यामित्यवगंतव्यं / तथा वादिनं साधनमात्रं ब्रुवाणमपि प्रतिवादी कथं जयतीत्याहपक्ष को पुष्ट करता है और प्रतिवादी उसके हेतु को दूषित करने की चेष्टा करता है। परन्तु ये पक्ष या प्रतिपक्ष नहीं हो सकते। यदि वादी और प्रतिवादी का उनमें (साधन और दूषण में) विवाद होने लगे तो उपर्युक्त पक्ष का लक्षण घटित होने से वही पक्ष हो जाता है। अत: उस पक्ष की सिद्धि हो जाने से वादी या प्रतिवादी में एक की विजय और दूसरे की पराजय होना व्यवस्थित हो जाता है। __किन्तु केवल अनुमान के पाँचों अंगों का उच्चारण नहीं करना वा हेतु के दोषों का उत्थापन नहीं करना मात्र वादी प्रतिवादी के निग्रह वा विजय नहीं है; क्योंकि पक्ष सिद्धि के अविनाभावी हेतु के अंगों का कथन नहीं करना वादी का निग्रह स्थान है। यह निग्रह स्थान प्रतिवादी के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि करने पर ही होगा। इसलिए तत्त्व का निवारण नहीं हो सकता। वही श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - . प्रतिवादी के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने पर यदि वादी के द्वारा पक्षसिद्धि के अविनाभावी हेतु का कथन नहीं किया जाता है तो वादी का निग्रह स्थान हो जाता है॥६९॥ बिना कहे ही सामर्थ्य से यह तत्त्व भी समझ लेना चाहिए कि वादी के द्वारा स्वकीय पक्ष की सिद्धि कर देने पर प्रतिवादी के द्वारा श्रेष्ठ दूषण नहीं देना ही प्रतिवादी का निग्रह स्थान है। यदि वादी अपने पक्ष की सिद्धि नहीं करता है तो प्रतिवादी का निग्रह नहीं होता। “केवल साधन मात्र को कहने वाले वादी को प्रतिवादी कैसे जीत लेता है?" ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं - ___ वादी के विरुद्ध हेतुओं का उद्भावन करने वाला प्रतिवादी वादी को जीत लेता है अर्थात् वादी के हेतुओं को हेत्वाभास सिद्ध करने वाले प्रतिवादी की विजय हो जाती है।