________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 134 तत्र नैगमं व्याचष्टेतत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थस्याभिधानतः // 17 // संकल्पो निगमस्तत्र भवोयं तत्प्रयोजनः / तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते॥१८॥ नन्वयं भाविनीं संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते / अप्रस्थादिषु तद्भावस्तंडुलेष्वोदनादिवत् // 19 // इत्यसद्वहिरर्थेषु तथानध्यवसानतः / स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तितः // 20 // यद्वा नैकं गमो योत्र स सतां नैगमो मतः / धर्मयोर्धर्मिणोऽपि विवक्षा धर्मधर्मिणोः // 21 // प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः / इत्ययुक्तं इह ज्ञप्ते: प्रधानगुणभावतः॥२२॥ प्राधान्येनोभयात्मानमर्थं गृह्णद्धिवेदनम्। प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपंचेन निवेदितम् // 23 // उन सात नयों में से केवल संकल्प का ग्राहक नैगम नय माना गया है, जो कि अशुद्ध द्रव्यस्वरूप अर्थ का कथन कर देने से क्वचित् संकल्प किये गये पदार्थ की उपाधि से सहित है।।१७।। नैगम शब्द, भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धित का अण प्रत्यय कर बनाया गया है। निगम का अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उत्पन्न होता है अथवा संकल्प जिसका प्रयोजन है वह नैगमनय है। अतः उसी प्रकार निरुक्ति करने से प्रस्थ, इन्द्र आदि का जो संकल्प है, वह नैगम नय स्वरूप अभिप्राय इष्ट किया गया है॥१८॥ शंका - यह नैगम नय का विषय तो भविष्य में होने वाली संज्ञा का आश्रय कर वर्तमान में भविष्य का उपचार युक्त किया गया है, जैसे कि प्रस्थ आदि के अभाव में भी कोरी कल्पनाओं में उनका सद्भाव गढ़ लिया जाता है। अथवा चावलों में भात आदि का व्यवहार कर दिया जाता है। अर्थात् विषयों में केवल भविष्य पर्याय की अपेक्षा व्यवहार कर दिया जाता है॥१९॥ अर्थात् यह नय वास्तविक नहीं है। समाधान - अब आचार्य कहते हैं कि यह तुम्हारा कहना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि बहिरंग अर्थों में इस प्रकार भावी संज्ञा की अपेक्षा अध्यवसाय नहीं होता है। स्व संवेद्यमान संकल्प के होने पर ही इस नय की प्रवृत्ति होती है। अर्थात् किसी का संकल्प होगा तभी तो उसके अनुसार सामग्री मिलायेगा, प्रयत्न करेगा। अन्यथा चाहे जिससे चाहे कुछ भी कार्य बन बैठेगा। यद्यपि संकल्पित पदार्थ वर्तमान में कोई अर्थक्रिया नहीं कर रहा है, फिर भी इस नैगमनय का विषय यहाँ दिखलाया गया है।॥२०॥ अथवा 'न एक गम: नैगमः' जो धर्म और धर्मी में से एक ही अर्थ को नहीं जानता है, किन्तु गौण, प्रधानरूप से धर्म, धर्मी, दोनों को विषय करता है, वह सज्जन पुरुषों के यहाँ नैगमनय माना गया है। अन्य नय तो एक ही धर्म को जानते हैं। किन्तु नैगमनय द्वारा जानने में दो धर्मों की अथवा दो धर्मियों की या एक धर्म से दूसरे धर्मी की विवक्षा होती है। अर्थात् जैसे कि जीव का गुण सुख है, या जीव सुखी है, इस प्रकार नैगमनय द्वारा दो पदार्थों की ज्ञप्ति हो जाती है।।२१।। जब नैगमनय धर्म, धर्मी दोनों का ग्राहक है, तब तो यह नय प्रमाणस्वरूप ही है, अर्थात् धर्म और धर्मी से अतिरिक्त कोई तीसरा पदार्थ प्रमाण द्वारा जानने के लिए शेष नहीं रहा है। इस प्रकार आक्षेप करना युक्त नहीं है। क्योंकि, यहाँ नैगम नय में धर्म धर्मी में से एक की प्रधान और दूसरे की गौणरूप से ज्ञप्ति की गयी है। परस्पर में गौण प्रधानरूप से भेद अभेदक को निरूपण करने वाला अभिप्राय