________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 167 प्रस्थादिक्रियापरिणतस्यैवार्थस्य प्रस्थादित्वादन्यथातिप्रसंगादिति। तथा स्यादुभयं क्रमार्पितोभयनयार्पणात्, स्यादवक्तव्यं सहार्पितोभयनयाश्रयणात. अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगा यथायोगमदाहार्या, इत्येता: षट्सप्तभंग्यः। तथा संग्रहाश्रयतो विधिकल्पना स्यात् सदेव सर्वमसतोऽप्रतीते: खरशृंगवदिति तत् प्रतिषेधकल्पना व्यवहाराश्रयणान्न स्यात्, सर्वं सदेव द्रव्यत्वादिनोपलब्धेर्द्रव्यादिरहितस्य सन्मात्रस्यानुपलब्धेश्चेति ऋजुसूत्राश्रयणात् प्रतिषेधकल्पना न सर्वं स्यात् / सदेव वर्तमानाद्रूपादन्येन रूपेणानुपलब्धेरन्यथा अनाद्यनंतसत्तोपलंभप्रसंगादिति शब्दाश्रयणात्प्रतिषेधकल्पना न सर्वं स्यात्सदेव कालादिभेदेन भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेरन्यथा कालादिभेदानर्थक्यप्रसंगादिति समभिरूढाश्रयात्प्रतिषेधकल्पना न सर्वं सदेव स्यात्, तितर-बितर हो जाती हैं। पूर्व नयों के व्यापक विषय को एवंभूत नहीं पकड़ती है। अत: छह प्रकारों से दो मूल भंगों को बनाना चाहिए। इसी प्रकार तीसरा भंग क्रम से अर्पित किये गये दोनों नयों की अर्पणा से कथंचित् उभय बना लेना, तथा एक साथ कहने के लिए अर्पित किये दोनों नयों के आश्रय से कथंचित् अवक्तव्य इस प्रकार चौथा भंग बनाना। तथा जिनके उत्तर कोटि में अवक्तव्य पड़ा हुआ है, ऐसे बचे हुए अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्ति नास्ति अवक्तव्य, ये तीन भंग भी यथायोग्य विवक्षाओं का योग मिलने पर उदाहरण करने योग्य है। इस प्रकार ये छह सप्तभंगियाँ समझा दी गयी हैं। तथा नैगमनय की पद्धति अनुसार संग्रहनय का आश्रय करने से विधि की कल्पना होती है। सम्पूर्ण प्रतीतमान पदार्थ सद्भूत ही हैं। गर्दभ के सींग समान असत् पदार्थों की प्रतीति नहीं हो पाती है। इस प्रकार संग्रहनय से सब सत् हैं। ‘स्यात् सदेव सर्वं' ऐसा प्रथम भंग बनाना तथा व्यवहार नय के आश्रय से उसके निषेध की कल्पना करना, 'न स्यात् सर्वं सदेव', किसी अपेक्षा से सम्पूर्ण पदार्थ केवल सत् रूप ही नहीं हैं क्योंकि व्यवहार में द्रव्य या पर्यायरूप से पदार्थों की उपलब्धि हो रही है। द्रव्य, गुण, पर्याय या उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से रहित केवल सत् की स्वप्न में भी उपलब्धि नहीं है। अन्यथा (द्रव्य और पर्याय के बिना) केवल सत् दृष्टिगोचर होगा तो जीव या घट का उपलम्भ करने पर उसकी अनादिकाल से अनन्त काल तक रहने वाली सत्ता के उपलम्भ हो जाने का प्रसंग आयेगा। किन्तु व्यवहारी जनों को केवल सत्ता का उपलम्भ नहीं होता है। द्रव्य और पर्यायों में विशेषण रूप सत् का ज्ञान हो जाता है। अत: व्यवहार नय से कोरे सत् की निषेध कल्पना की गयी है। इसी प्रकार ऋजुसूत्र नय के आश्रय से प्रतिषेध की कल्पना करना - 'न सर्वं स्यात् सदेव' - सभी पदार्थ कथंचित् सत् रूप ही नहीं हैं। क्योंकि वर्तमान पर्याय स्वरूप से, अन्य स्वरूपों से पदार्थों की उपलब्धि नहीं हो रही है। अन्यथा (यानी) ऋजुसूत्रनय से वर्तमान पर्यायों के अतिरिक्त पर्यायों की भी विधि दीखने लगेगी, तो अनादि, अनन्त, काल की पर्यायों का सद्भाव दीख जाना चाहिए। ... अत: संग्रहनय से सत् की विधि को करते हुए ऋजुसूत्र नय से प्रतिषेध कल्पना करना युक्त है। इसी प्रकार शब्द नय के आश्रय से प्रतिषेध कल्पना कर लेना। 'न सर्वं स्यात् सदेव' सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् सत्रूप ही नहीं हैं। क्योंकि, काल, कारक, संख्या आदि के भेद करके भिन्न-भिन्न अर्थों की उपलब्धि हो रही है। अर्थात् काल आदि से भिन्न पदार्थ तो जगत् में विद्यमान है। शेष कोई कोरा सत् पदार्थ नहीं है।