________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 184 परपक्षप्रतिषेधः कदाचित्परपक्षप्रतिषेधद्वारेण स्वपक्षविधानमिष्यते नैवं वितंडायां परपक्षप्रतिषेधस्यैव सर्वदा तत्र नियमात्। नन्वेवं प्रतिपक्षोपि विधिरूपो वितंडायां नास्तीति प्रतिपक्षहीन इत्येव वक्तव्यं स्थापनाहीन इत्यस्यापि तथाऽसिद्धेः, स्थाप्यमानस्याभावे स्थापनायाः संभवायोगादिति चेन्न; अनिष्टप्रसंगात्। सर्वथा प्रतिपक्षहीनस्यार्थस्यानिष्टस्य प्रसक्तौ च यथा वितंडायां साध्यनिर्देशाभावस्तस्य चेतसि परिस्फुरणाभावश्च तथार्थापत्त्यापि गम्यमानस्य प्रतिपक्षस्याभाव इति व्याहतिः स्याद्वचनस्य गम्यमानस्वपक्षाभावे परपक्षप्रतिषेधस्य भाविविरोधात्। प्रतिपक्षस्थापनाहीन इति वचने तु न विरोधः सर्वशून्यवादिनां परपक्षप्रतिषेधे सर्वः शून्यमिति स्वपक्षगम्यमानस्य भावेपि स्थापनाया गम्यमानायास्तद्वद्भावाभावे वा शून्यताव्याघातात्। तर्हि प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वेन तमभ्युपेयादित्यत्रापि प्रतिपक्षहीनमपि चेति वक्तव्यं, सर्वथा प्रतिपक्षहीनवादस्यासंभवादिति चेत् / क एवं व्याचष्टे सर्वप्रतिपक्षहीनमिति? परत: प्रतिज्ञामुपादित्समानस्तत्त्वबुभुत्साप्रकाशनेन स्वपक्षं वचनतोनवस्थापयत्स्वदर्श साधयेदिति व्याख्यानात् तत्र ___ शंका - इस प्रकार वितण्डा में विधिरूप प्रतिपक्ष नहीं है इसलिए इसे प्रतिपक्षहीन ही कहना चाहिए। क्योंकि “स्थापना हीन है" इस प्रकार के कथन की भी असिद्धि है क्योंकि स्थापना करने योग्य पदार्थ का अभाव होने पर स्थापना की संभावना करना युक्त नहीं है। ___समाधान - जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अनिष्ट.का प्रसंग आता है। कारण कि सर्वथा प्रतिपक्ष से हीन अनिष्ट अर्थ का प्रसंग प्राप्त होने पर जैसे वितण्डा में अपने साध्य हो रहे धर्म के निर्देश का अभाव है, और उस साध्य की मन में स्फूर्ति होने का अभाव है। ___ उसी प्रकार अर्थापत्ति के द्वारा गम्यमान प्रतिपक्ष का अभाव है। अत: व्याघात दोष आता है। यदि अर्थापत्ति से जानने योग्य स्वरूप को स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो परपक्ष के निषेध का भावी विरोध आता है। “प्रतिपक्ष की स्थापना से हीन है" - इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है। सर्व शून्यवादियों के द्वारा प्रमाण, प्रमेय आदि को मानने वाले दूसरे विद्वानों के पक्ष का निषेध किये जाने पर यद्यपि शून्यवादियों के “सम्पूर्ण जगत् शून्य है" "नि:स्वभाव है" इस प्रकार गम्यमान निजपक्ष का सद्भाव है, तथापि, गम्यमान स्थापना का उस स्वपक्ष के समान यदि सद्भाव नहीं माना जाता है तो शून्यता का भी व्याघात हो जाता है। प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए, प्रयोजन की सिद्धि के इच्छुकों (पुरुषों) को प्रतिपक्षहीनता भी स्वीकार कर लेना चाहिए। इस प्रकार यहाँ पर भी प्रतिपक्ष से हीन है - ऐसा कहना चाहिए। सर्वथा प्रतिपक्षहीन वाद की असंभवता है। ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कौन कह रहा है कि सभी प्रकार प्रतिपक्षों से हीन वितण्डा होना चाहिए? परवादी से प्रतिज्ञा को ग्रहण करने की इच्छा रखने वाला वैतंडिक तत्त्व को जानने की इच्छा का प्रकाशन करके स्वकीय पक्ष को वचनों के द्वारा व्यवस्थापित नहीं करता हुआ अपने सिद्धान्त दर्शन की सिद्धि कराता है (करता है)। इस प्रकार के व्याख्यान से वितण्डा में भी गम्यमान स्वपक्ष का सद्भाव पाया जाता है। अन्यथा इस प्रकार अपने व्याख्यान से स्वपक्ष की स्थापना नहीं करता है ऐसा मानने पर 'स्वपक्ष को व्यवस्थापित नहीं करता है'- भाष्यकार के इन वचनों का विरोध आता है।