________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 191 एकतः कारयेत्सभ्यान् वादिनामेकतः प्रभुः। पश्चादभ्यर्णकान् वीक्ष्यं प्रमाणगुणदोषयोः॥३९॥ लौकिकार्थविचारेषु न तथा प्राश्निका यथा / शास्त्रीयार्थविचारेषु वा तज्ज्ञाः प्राश्निका यथा४० सत्यसाधनसामर्थ्यसंप्रकाशनपाटवः / वाद्यजेयो विजेता नो सदोन्मादेन केवलम् ॥४१॥इति समर्थसाधनाख्यानं सामर्थ्य वादिनो मतं / सा त्ववश्यं च सामर्थ्यादन्यथानुपपन्नता॥४२॥ सद्दोषोद्भावनं वापि सामर्थ्य प्रतिवादिनः / दूषणस्य च सामर्थ्य प्रतिपक्षविघातिता // 43 // ननु यथा सभापतेः प्राश्निकानां च सामर्थ्यमविरुद्धमुक्तं वादिनोः साधनदूषणयोश्च परस्परव्याघातात् / तथाहि-यदि वादिनः सम्यक्साधनवचनं सामर्थ्यं साधनस्य चान्यथानुपपन्नत्वं तदा कथं तत्र प्रतिवादिनः सद्दोषोद्भावनं सामर्थ्य संसाध्यं दूषणस्य च पक्षविघातितावत्कथमितरदिति परस्परव्याहतं पश्यामः / प्रभु (सभापति) एक तरफ सभ्यों (सभासदों) को बिठाता है और एक तरफ वादी एवं प्रतिवादी को। उसके बाद समीपवर्ती दर्शकों को बिठाता है। तब वादी और प्रतिवादी के गुण दोषों में प्रमाण को समझता है॥३९॥ .. जैसे लोकसम्बन्धी अर्थों के विचारों में प्राश्निक होते हैं, वैसे प्राश्निक शास्त्र सम्बन्धी अर्थ के विचारों में नहीं होते है। परन्तु शास्त्रार्थ के विचार करने में उस विषय को यथा योग्य परिपूर्ण जानने वाले पुरुष मध्यस्थ होते हैं।॥४०॥ - सत्य (समीचीन) साधन (हेतु) के सामर्थ्य के संप्रकाशन में दक्ष वादी विद्वान् अजेय होता है और दूसरों को जीतने वाला होता है। केवल चित्त के विभ्रम से सदा वादी विजेता नहीं होता है॥४१॥ समर्थ साधन का कथन करना ही वादी का सामर्थ्य माना गया है और हेतु का सामर्थ्य साध्यके साथ अन्यथा अनुपपत्ति होना है। वह अन्यथा अनुपपत्ति होना अत्यावश्यक है अर्थात् अन्यथानुपपत्ति के बिना साधन की सिद्धि नहीं हो सकती है॥४२॥ समीचीन दोषों की उद्भावना करना प्रतिवादी का सामर्थ्य है तथा प्रतिपक्ष का विघात करना दूषण का सामर्थ्य है।।४३॥ जिस प्रकार सभापति और प्राश्निकों (सभ्यों) का सामर्थ्य एक दूसरे के अविरुद्ध कहा गया है, वैसे वादी और प्रतिवादियों की शक्ति अविरुद्ध नहीं है। क्योंकि, वादी का सामर्थ्य समीचीन साधन के द्वारा साध्य को सिद्ध करना है और प्रतिवादी का सामर्थ्य है, उसमें समीचीन दूषण देना / परन्तु यदि वादी प्रतिवादी की शक्ति विरुद्ध नहीं होगी तो इन दोनों के सामर्थ्य का परस्पर व्याघात हो जाता है। उसी को कहते हैं - यदि वादी का अन्यथानुपपन्नत्व साधन का सामर्थ्य समीचीन हेतु का कथन है तो उसमें प्रतिवादी का समीचीन दोषों का उद्भावन करने का सामर्थ्य कैसे संसाध्य हो सकता है? तथा दूषण के सामर्थ्य में प्रतिपक्ष का विघातकपना भी कैसे साधा जायेगा? इसलिए यह नहीं है', 'वह नहीं है', - इस प्रकार परस्पर में व्याघात को प्राप्त होता देख रहे हैं। तथा वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति, में से किसी एक के असमर्थ होने पर