Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 202
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 189 तूष्णीभावासंभवादसदुत्तराणामानंत्यान्यायबलादेव परनिराकरणसंभवात्। सोय परनिराकरणायान्ययोगव्यवच्छेदेनाव्यवसिताद्यनुज्ञानं तत्त्वविषयप्रज्ञापारिपाकादि च फलमभिप्रेत्य वादं कुर्वन् परं निग्रहस्थानैर्निराकरोतीति कथमविरुद्धवाक् न्यायेन प्रतिवादिनः स्वाभिप्रायान्निवर्तनस्यैव निग्रहत्वादलाभे वा ततो निग्रहत्वायोगात् / तदुक्तं / “आस्तां तावदलाभादिरयमेव हि निग्रहः। न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवर्तनम्॥” इति सिद्धमेतत् जिगीषतोर्वादो निग्रहस्थानवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति। स च चतुरंग: स्वाभिप्रेतस्वव्यवस्थानफलत्वाल्लोकप्रख्यातवादवत्। तथाहि मर्यादातिक्रम लोके यथा हंति महीपतिः। तथा शास्त्रेप्यहंकारग्रस्तयोर्वादिनो: क्वचित् / 30 / “दूसरों को चुप करने के लिए जल्प और वितण्डा में छल, जाति आदि का उद्भावन किया जाता है"- ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि उस प्रकार छलादि के द्वारा दूसरों को चुप कर देना संभव नहीं है क्योंकि असमीचीन उत्तर अनन्त हैं। ___ न्याय के सामर्थ्य से ही दूसरे का निराकरण करना संभव है। सो वह प्रसिद्ध नैयायिक दूसरों का निराकरण करने के लिए अन्य के योग के व्यवच्छेद द्वारा अनिर्णीत, संदिग्ध, विपर्यस्त आदि का ज्ञान होना और जाने गये तात्त्विक विषयों में प्रज्ञा का परिपाक, दृढ़ता आदि हो जाने रूप फल का निश्चय करके वाद को कहने वाला प्रतिवादी ही निग्रह स्थानों के द्वारा वादी का निराकरण कर सकता है। ऐसा कहने वाला नैयायिक पूर्वापर अविरुद्ध बोलने वाला कैसे जाना जा सकता है? न्याय के सामर्थ्य से प्रतिवादी की स्व अभिप्राय से निवृत्ति करा देना ही निग्रह स्थान है। यदि अपने आग्रहीत अभिप्रायों से निवृत्त कराकर वादी प्रतिवादी को अपने समीचीन सिद्धान्तों का लाभ नहीं करा देता है तो इन छल आदिकों से उस प्रतिवादी का निग्रह किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है। ग्रन्थों में भी लिखा है कि - लाभ, सत्कार, प्रसिद्धि आदि का नहीं होना तो दूर रहा, (अर्थात्) जीतने की इच्छा रखने वालों को लाभ, सत्कार आदि तो प्राप्त होता ही नहीं है, किसी एक का किसी एक के द्वारा न्याय पद्धति से नियमपूर्वक स्वकीय अभिप्रायों से निवृत्त करा देना ही निग्रह है। इससे यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि वाद जीतने की इच्छा रखने वाले विद्वानों में ही होता है। अन्यथा (जीतने की इच्छा के बिना) निग्रह स्थान नहीं हो सकता। ___इस प्रकार अट्ठाईसवीं वार्तिक के अनुसार वह वाद लोकप्रसिद्ध वाद के समान स्वकीय अभिप्राय के अनुसार अपने पक्ष की व्यवस्था कर देने रूप फल सहित होने से सभ्य, सभापति, वादी और प्रतिवादी, इन अंगों सहित होता है। ... अर्थात् जैसे न्यायाधीश (सभापति), साक्षी या दर्शक (सभ्य), वादी और प्रतिवादी इन अंगों सहित लौकिक वाद (मुकदमा) चलता है। जिस प्रकार लोक में राजा मर्यादा का उल्लंघन करने वाले वादी-प्रतिवादी को दण्डित करता है, उन्हें दण्ड देता है, उसी प्रकार शास्त्र में (शास्त्रीय चर्चा में) भी अहंकार से ग्रसित वादी प्रतिवादी की मर्यादा के अतिक्रमण का (मर्यादा के उल्लंघन का) सभापति नाश करता है अर्थात् सभापति मर्यादा का उल्लंघन करने वाले वादी प्रतिवादी को दण्डित करता है।॥३०॥

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