________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 187 तथा चाख्यातिरेव प्रेक्षावत्सु अस्य स्यादिति कुतः पूजालाभो वा? ततश्चैवं वक्तव्यं वादो जिगीषतोरेव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः / पराभ्युपगममात्राज्जल्पवितंडावत्त्वात् निग्रहस्थानवत्त्वाच्च / न हि वादे निग्रहस्थानानि न संति। सिद्धांताविरुद्धः इत्यनेनापसिद्धांतस्य पंचावयवोपपन्न इत्यत्र पंचग्रहणान्न्यूनाधिकयोरवयवोपपन्नग्रहणाद्धेत्वाभासपंचकस्य प्रतिपादनादष्टानां निग्रहस्थानानां तत्र जैसे तत्त्वों का उपप्लव (अभाव) मानने वाले वादी की स्वयं तत्त्व का निर्णय नहीं होते हुए भी प्रतिपक्षी के मुख बन्द करने की प्रवृत्ति होती है। यही दूसरे का मुख बन्द करने का प्रयत्न जल्प ओर वितण्डा में होता है। तथा विचारशील पुरुषों में इसकी (जल्प ओर वितण्डा की) अख्याति (निन्दा) ही होती है। इसलिए जल्प और वितण्डा में पूजालाभ-सत्कार कैसे प्राप्त हो सकता है? इस कथन से यह सिद्ध होता है कि तत्त्वसरंक्षण व तत्त्वनिर्णय का कारण होने से तत्त्व को जानने की वा जीतने की इच्छा वाले दो वादी प्रतिवादी में वाद की प्रवृत्ति होती है। अन्यथा (यदि तत्त्वों का निर्णय करने की इच्छा नहीं है तो) वाद की प्रवृत्ति नहीं होती है। जैसे दूसरे नैयायिकों द्वारा स्वीकृत जल्प और वितण्डा निग्रहस्थान का कारण होने से तत्त्व के निर्णायक नहीं हैं, अत: उनको वाद नहीं कह सकते। वाद में निग्रह स्थान (तिरस्कार वर्धक) नहीं होते हैं, ऐसा नहीं है अर्थात् वाद में भी वादी प्रतिवादियों के द्वारा तिरस्कार-वर्धक या पराजय-सूचक निग्रहस्थान होते हैं। अत: वाद एक दूसरे को जीतने की इच्छा रखने वालों में होता है। __ वाद में “सिद्धान्त अविरुद्ध" यह पद पड़ा हुआ है। इससे वाद में अपसिद्धान्त का निग्रह स्थान है अर्थात् वाद में सिद्धान्त के अविरुद्ध अपसिद्धान्त का निग्रह किया जाता है। वाद के लक्षण में “पंचावयवोपपन्न" - इस विशेषण से न्यून और अधिक नामक निग्रह स्थान कहा गया है अर्थात् "पंचावयवोपपन्न" पाँच अवयवों से सहित पाँचों हेत्वाभास नामक निग्रहस्थान वाद में नियमित कहे गये हैं। इस प्रकार वाद में आठ निग्रह स्थान कहे गये हैं। भावार्थ : वाद सिद्धान्त के अविरुद्ध होता है, अत: जो वादी प्रतिवादी सिद्धान्त के विरुद्ध बोलता है वह अपसिद्धान्त नामक निग्रह स्थान है। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण (दृष्टान्त), उपनय और निगमन ये पाँच अनुमान के अंग हैं। इनमें से न्यूनाधिक करना पाँचों अंगों का प्रयोग नहीं करना न्यूनाधिक नामक निग्रह स्थान है। इनमें से एक कम बोलने पर न्यून और अधिक बोलने से अधिक नामक निग्रह स्थान है। यदि प्रतिज्ञा नहीं कही जाती है तो आश्रयासिद्ध हेत्वाभास नामक निग्रह स्थान होता है। यदि हेतु नहीं कहा जाता है तो स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नामक निग्रह स्थान होता है। अन्वयदृष्टान्त नहीं कहने पर विरुद्ध हेत्वाभास निग्रह स्थान होता है। व्यतिरेक दृष्टान्त नहीं कहने पर अनैकान्तिक हेत्वाभास निग्रह स्थान है। उपनय के नहीं होने पर बाधित हेत्वाभास नामक निग्रह स्थान होता है। निगमन से युक्त नहीं होने पर सत्प्रतिपक्ष नामक निग्रह स्थान होता है।