________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 185 गम्यमानस्य स्वपक्षस्य भावात्, स्वपक्षमनवस्थापयन्निति भाष्यकारवचनस्यान्यथा विरोधात्। कुतोन्यथा भाष्यकारस्यैवं व्याख्यानमितिचेत्, सर्वथा स्वपक्षहीनस्य वादस्य जल्पवितंडावदसंभवादेव कथमेवं वादजल्पयोर्वितंडातो भेद:? प्रतिपक्षस्थापनाहीनत्वाविशेषादिति चेत्, उक्तमत्र नियमतः प्रतिपक्षस्थापनाया हीना वितंडा, कदाचित्तया हीनौ वादजल्पाविति। केवलं वादः प्रमाणतर्कसाधनोपलंभत्वादिविशेषणः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः / जल्पस्तु छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभश्च यथोक्तोपपन्नश्चेति वितंडातो विशिष्यते। तदेवं पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहस्य जल्पे सतोपि प्रमाणतर्कसाधनोपलंभत्वादिविशेषणाभावाद्वितंडायामसत्त्वाच्च न जल्पवितंडयोस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वसिद्धिः प्रकृतसाधनाद्येनेष्टविघातकारीदं स्यादनिष्टस्य साधनादिति भावार्थ - वात्स्यायन ऋषि ने अपने सूत्र में कहा है कि “दूसरे वादी के साध्य का निषेध करना स्वरूप वाक्य ही वैतण्डिक का पक्ष है। वह वैतंडिक किसी साध्य विशेष की प्रतिज्ञा कर स्थापना नहीं करता है अर्थात् स्वकीय पक्ष की स्थापना नहीं करता है। अपनी प्रतिज्ञा को भी ग्रहण नहीं करता है, तत्त्व को जानने की इच्छा भी प्रकट नही करता है। केवल, दूसरे के पक्ष का खण्डन करना ही (जिसका) कार्य है। इससे सिद्ध होता है कि वितण्डा सर्वथा प्रतिपक्ष की सिद्धि से रहित नहीं है। ___शंका - अन्यथा (वितण्डा में प्रतिपक्ष की सिद्धि होने पर) भाष्यकार का इस प्रकार व्याख्यान कैसे सिद्ध हो सकता है? समाधान - जैनाचार्य कहते हैं कि जल्प और वितण्डा के समान सर्वथा स्वपक्षहीन वाद की असंभवता है अर्थात् जैसे जल्प और वितण्डा में स्वपक्ष विद्यमान है उसी प्रकार वाद में भी स्वपक्ष का अस्तित्व है। प्रश्न - इस प्रकार स्वपक्ष के होने पर वितण्डा से जल्प और वाद का भेद कैसे हो सकेगा? क्योंकि प्रतिकूल पक्ष की स्थापना से रहितपने की अपेक्षा इन तीनों में समानता है (कोई विशेषता नहीं है।) उत्तर - जैनाचार्य कहते हैं कि इस विषय में पूर्व में ही कह दिया गया है कि नियम (निश्चय) से वितण्डा प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित ही है। परन्तु वाद और जल्प कभी-कभी प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित होते हैं। केवल (अकेले) वाद प्रमाण, तर्क, साधन का उपलंभत्वादि विशेषणों से युक्त है और वह वाद पक्ष और प्रतिपक्ष का ग्रहण करने वाला है। अर्थात् वाद प्रमाण और तर्क के द्वारा स्वपक्ष की स्थापना और प्रतिपक्ष का निराकरण करता है। परन्तु जल्प तो छल, जाति और निग्रह स्थानों के द्वारा साधन करना, उपालंभ (उलाहना) देना आदि से युक्त है। अत: यथोक्त (उपरिकथित) विशेषणों से युक्त वितण्डा से जल्प और वाद में विशेषता है। इस प्रकार यद्यपि जल्प में पक्ष और प्रतिपक्ष के ग्रहण रूप वाद का लक्षण विद्यमान . है, तथापि प्रमाण और तर्क के द्वारा वस्तु को सिद्ध करना, विपरीत होने पर उलाहना देना, सिद्धान्त के अविरुद्ध होना आदि विशेषणों का अभाव होने से वितण्डा में वाद का सत्त्व (अस्तित्व) नहीं है। इसलिए प्रकृत हेतु के द्वारा जल्प और वितण्डा में तत्त्वनिर्णय के सरंक्षकपने की असिद्धि है। अर्थात् जल्प और वितण्डा में हेतुओं के द्वारा तत्त्व का निर्णय नहीं होता है जिससे कि अनिष्ट का साधन होने से यह हेतु इष्ट