________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 174 प्रमाणनयानामपि परस्परविषयगमनविशेषेण विशेषितश्चेति शंकायामिदमाहनयार्थेषु प्रमाणस्य वृत्तिः सकलदेशिनः / भवेन्न तु प्रमाणार्थे नयानामखिलेषु सा॥१०१॥ किमेवं प्रकारा एव नयाः सर्वेप्याहुस्तद्विशेषाः संति? अपरेपीत्याह-.. संक्षेपेण नयास्तावद्व्याख्यातास्तत्र सूचिताः। तद्विशेषाः प्रपंचेन संचिंत्या नयचक्रतः।१०२॥ एवमधिगमोपायभूताः प्रमाणनया: व्याख्याताः (य)॥ ___ इति नयसूत्रस्य व्याख्यानं समाप्तं // प्रमाण और नयों को भी परस्पर में विषयों के गमन विशेष से कोई विशेषता प्राप्त है क्या? इस प्रकार आशंका होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - सकल वस्तु को ग्रहण करके जानने वाले प्रमाण की प्रवृत्ति तो नयों द्वारा गृहीत किये गये अर्थों में अवश्य होती है। किन्तु नयों की यह प्रवृत्ति इस प्रमाण द्वारा गृहीत अर्थों में सम्पूर्ण अंशों में नहीं होती है। अर्थात् प्रमाण ने अभेदवृत्ति करके वस्तु के सम्पूर्ण अंशों को जाना है और नयों द्वारा वस्तु के एक अंश या कतिपय अंशों को ही जाना जाता है, अत: व्यापकग्राही प्रमाण तो नयों के विषय में प्रवृत्ति कर लेता है किन्तु नय प्रमाणगृहीत सभी अंशों को स्पर्श नहीं कर सकता है। अथवा नय जिस प्रकार अन्तस्तलस्पर्शी होकर वस्तु के अंश को जता देता है, उस प्रकार प्रमाण की या श्रुत ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं है। तभी तो प्रमाण, नय दोनों को स्वतंत्रता से अधिगम का कारण माना गया है। सम्पूर्ण नय इतने ही प्रकार के हैं अथवा और भी उनके विशेष भेद हैं? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचाय कहते हैं कि कथित प्रकारों से अतिरिक्त भी नय विद्यमान हैं। श्री उमास्वामी महाराज ने उस नय प्रतिपादक सूत्र में संक्षेप से नयों की सूचना कर दी है। तदनुसार कुछ भेद, प्रभेद, करते हुए श्री विद्यानन्द स्वामी ने उन नयों का व्याख्यान कर दिया है। अधिक विस्तार से उन नयों के विशेष भेद प्रभेदों का नयचक्र नामक ग्रन्थ से विद्वान् पुरुषों को चिन्तन कर लेना चाहिए, समझ लेना चाहिए // 102 / / इस प्रकार अधिगम के प्रकृष्ट उपायभूत प्रमाण और नयों का यहाँ तक व्याख्यान कर दिया है। 'प्रमाणनयैरधिगम:' आदि पहिले कई सूत्रों में प्रमाणों का व्याख्यान है और प्रथम अध्याय के इस अन्तिम सूत्र में नयों का विवरण किया गया है, क्योंकि प्रमाण, नय स्वरूप ही न्याय है। इस प्रकार नयों का प्रतिपादन करने वाले “नैगम संग्रह व्यवहारर्जुसूत्रशब्द समभिरूद्वैवंभूता नया:" इस सूत्र का व्याख्यान पूर्ण हुआ है।