________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 175 ॥ॐ नमः सिद्धेभ्यः॥ ' तत्त्वार्थाधिगमभेदः // अथ तत्त्वार्थाधिगमभेदमाह तत्त्वार्थाधिगमस्तावत्प्रमाणनयतो मतः / - सर्वः स्वार्थः परार्थो वाध्यासितो द्विविधो यथा // 1 // अधिगच्छत्यनेन तत्त्वार्थानधिगमयत्यनेनेति वाधिगमः स्वार्थो ज्ञानात्मकः, परार्थो वचनात्मक इति प्रत्येयम्॥ परार्थाधिगमस्तत्रानुद्भवद्रागगोचरः / जिगीषु गोचरश्चेति द्विधा शुद्धधियो विदुः॥२॥ - सत्यवाग्भिर्विधातव्यः प्रथमस्तत्त्ववेदिभिः / यथा कथंचिदित्येष चतुरंगो न संमतः॥३॥ - यहाँ तक प्रथम अध्याय के सूत्रों का विवरण करके विद्यानंद आचार्य अब तत्त्वार्थ के अधिगम के भेद कहते हैं - .. सर्वप्रथम उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वों के जानने का उपाय प्रमाण और नय कहा है। वह प्रमाण स्वार्थ और परार्थ के भेद से दो प्रकार का माना गया है अर्थात् सर्व अधिगम स्व पर के लिए होता है॥१॥ जिस ज्ञान के द्वारा जीव तत्त्वार्थों को जानता है व जाना जाता है, दूसरों को समझाया जाता है उसको अधिगम कहते हैं। अधि उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातु से अच्' प्रत्यय करके अधिगम शब्द की निष्पत्ति होती है वह कर्तृ वाच्य है। इसका अर्थ ज्ञानस्वरूप अधिगम है। तथा अधिपूर्वक 'गम्' धातु से ण्यन्त प्रक्रिया में णिच् प्रत्यय करके पुनः अच् प्रत्यय की विधि के द्वारा जो अधिगम शब्द की निष्पत्ति की जाती है वह अधिगति के प्रेरक शब्द को कहता है- जैसे पढ़ना और पढ़ाना। वैसे ही समझना और समझाना। _ ज्ञानात्मक अधिगम स्व के लिए उपयोगी होता है और वचनात्मक अधिगम अन्य श्रोताओं के लिए उपयोगी होता है। ऐसा समझना चाहिए। - शुद्ध बुद्धि वाले महापुरुषों ने वह परार्थ अनुमान दो प्रकार का कहा है। प्रथम राग द्वेष के अगोचर होता है- जिसमें तत्त्वों के जानने की अभिलाषा होती है। दूसरे में वादी को जीतने की इच्छा होती है। गोचर का अर्थ विषय है। ___अर्थात् - वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए जो वीतराग भावना से गुरु शिष्य की परस्पर चर्चा होती है उसको वाद कहते हैं। और परस्पर में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से जो वचन व्यवहार होता है-उसे विवाद कहते हैं। इस प्रकार शब्दात्मक पदार्थ का अधिगम दो प्रकार का है॥२॥ ___ वीतराग पुरुषों में होने वाला प्रथम शब्द रूप अधिगम सत्यवचन कहने वाले तत्त्ववेत्ता पुरुषों के द्वारा विधान करने योग्य है। यह संवाद तो यथायोग्य चाहे किसी भी प्रकार से किया जा सकता है। इसमें सभ्य, सभापति, वादी और प्रतिवादी इन चार अंगों का होना आवश्यक नहीं माना है॥३॥