Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 189
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 176 प्रवक्त्राज्ञाप्यमानस्य प्रसभज्ञानपेक्षया। तत्त्वार्थाधिगमं कर्तुं समर्थोऽथ च शाश्वतः // 4 // विश्रुतः सकलाभ्यासाज्ञायमानः स्वयं प्रभुः। तादृक्सभ्यसभापत्य भावेपि प्रतिबोधकः // 5 // साभिमानजनारभ्यश्चतुरंगो निवेदितः। तज्ज्ञैरन्यतमापायेप्यर्थापरिसमाप्तितः // 6 // जिगीषद्भ्यां विना तावन्न विवादः प्रवर्तते। ताभ्यामेव जयोन्योन्यं विधातुं न च शक्यते॥७॥ वादिनो स्पर्द्धया वृद्धिरभिमानप्रवृद्धितः। सिद्धे वाचाकलंकस्य महतो न्यायवेदिनः // 8 // स्वप्रज्ञापरिपाकादिप्रयोजनेति केचन। तेषामपि विना मानाद्वयोर्यदि स संमतः॥९॥ तदा तत्र भवेद्व्यर्थः सत्प्रानिकपरिग्रहः / ज्ञेयं प्रश्नवशान्नैव कथं तैरिति मन्यते // 10 // यह वीतराग पुरुषों में होने वाला संवाद उत्कृष्ट ज्ञान वा निर्मल ज्ञान की अपेक्षा से प्रामाणिक वक्ता के द्वारा आज्ञापित पुरुष को तत्त्वार्थों का अधिगम कराने में समर्थ है। इसलिए यह शाश्वत है अर्थात् प्रकृष्ट ज्ञानी पुरुष की आज्ञानुसार कोई भी सज्जन पुरुष कभी भी तत्त्वों का निर्णय करने के लिए संवाद, कर सकता है॥४॥ ___ जो वक्ता सम्पूर्ण शास्त्रों का अभ्यास करने से जगत् प्रसिद्ध विद्वान् है, स्वयं दूसरों को समझाने के लिए अपने सिद्धान्त में निष्णात (प्रभु) है, वह प्रवक्ता वैसे सभ्य और सभापति के अभाव में भी जिज्ञासु शिष्यों का प्रबोधक हो सकता है॥५॥ ___परस्पर एक दूसरे को जीतने की इच्छा रखने वाले अभिमानी पुरुषों के द्वारा जो वाद (शास्त्रार्थ) प्रारंभ किया जाता है, उस वाद के वादी, प्रतिवादी, सभ्य (सभासद) और सभापति - ये चार अंग शास्त्र को जानने वालों ने निवेदन किये हैं (माने हैं)। विवाद में चार अंगों में से किसी एक अंग के नहीं होने पर अर्थ की परिसमाप्ति नहीं होती है। अर्थात् परिपूर्ण प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती है॥६॥ एक दूसरे को जीतने के इच्छुक वादी-प्रतिवादी के बिना विवाद की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। तथा उन दोनों ही के द्वारा जय-पराजय का विधान (निर्णय) करना शक्य नहीं है अर्थात् जय-पराजय की व्यवस्था (निर्णय) करने के लिए सभ्य पुरुष और सभापति की आवश्यकता होती है॥७॥ न्यायशास्त्र को परिपूर्ण रूप से जानने वाले न्यायवेदी महान् विद्वान् अकलंकदेव के वचन से यह सिद्ध हो चुका है कि वादी और प्रतिवादी पुरुष के प्रतिस्पर्धा से वृद्धि को प्राप्त अभिमान स्वकीय पराजय और दूसरे की जय को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है। अतः सभ्य और सभापति की आवश्यकता होती है // 8 // स्वकीय प्रज्ञा (बुद्धि) के परिपाक (अन्य को समझाने के लिए संकलना, ज्ञान की वृद्धि का अभ्यास) आदि प्रयोजन के कारण सभ्य और सभापति के बिना भी वादी और प्रतिवादी में विवाद की प्रवृत्ति देखी जाती है। ऐसा कोई कहता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि उन वादी प्रतिवादियों ने यदि प्रमाण के बिना ही प्रज्ञा का परिपाक होना मान लिया है तब तो सभ्य (श्रेष्ठ) पुरुषों को या प्राश्निक पुरुषों को एकत्रित करना व्यर्थ है। परन्तु “प्रश्न के कारण ज्ञेय पदार्थ व्यवस्थित नहीं है"- यह वादी प्रतिवादी के द्वारा स्वयं कैसे माना जा सकता है? अर्थात् वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि हमारा कथन ठीक नहीं है। अतः सभ्य और सभापति की आवश्यकता है।९-१०॥

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