________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*१७९ यथा वाद्यादयो लोके दृश्यंते तेन्यभेदिनः / तथा न्यायविदामिष्टा व्यवहारेषु ते यदि॥२४॥ तदा भावात्स्वयं वक्तुः सभ्या भिन्ना भवंतु ते / सभापतिश्च तद्बोध्यजनवंतश्च नेष्यते॥२५॥ जिगीषाविरहात्तस्य तत्त्वं बोधयतो जनान्। न सभ्यादिप्रतीक्षास्ति यदि वादे क्व सा भवेत् // 26 // ततो वादो जिगीषायां वादिनोः संप्रवर्तते। सभ्यापेक्षणतो जल्पवितंडावदिति स्फुटं // 27 // तदपेक्षा च तत्रास्ति जयेतरविधानतः। तद्वदेवान्यथा तत्र सा न स्यादविशेषतः॥२८॥ सिद्धो जिगीषतोर्वादश्चतुरंगस्तथा सति / स्वाभिप्रेतव्यवस्थानाल्लोकप्रख्यातवादवत् // 29 // जैसे लोक म दूसरों का भेद करने वाले वादी प्रतिवादी आदि देखे जाते हैं, उसी प्रकार न्यायशास्त्रों को जानने वाले विद्वानों के व्यवहारों में भी दूसरों का भेद करने वाले वादी आदि इष्ट कर लिये जाते हैं, स्वीकार कर लिये जाते हैं अर्थात् जैसे लौकिक जन किसी कारणवश परस्पर विवाद करते हैं उनमें वादीप्रतिवादी की कल्पना की जाती है, उसी प्रकार न्यायग्रन्थों में भी किसी कारणवश वादी-प्रतिवादी की कल्पना जाती है। इस प्रकार नैयायिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो पदार्थों का स्वयं विवेचन करने वाले वक्ता से सभ्य (सभासद) पृथक् ही है। और वक्ता के द्वारा समझाने योग्य सभ्य (वा शिष्य) के समान सभापति भी भिन्न होना चाहिए। परन्तु नैयायिक सिद्धान्त में वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति इनको भिन्न-भिन्न स्वीकार नहीं किया गया है / / 24-25 // .. यदि नैयायिक कहे कि श्रोतागण को तत्त्व का स्वरूप समझाने वाले महेश्वर के जीतने की इच्छा का अभाव होने से सभ्य, सभापति आदि की अपेक्षा नहीं होती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो विवाद में भी सभ्य, सभापति आदि की प्रतीक्षा क्यों होनी चाहिए? परन्तु नैयायिक ने वाद में सभ्य सभापति आदि को स्वीकार किया है। इससे सिद्ध होता है कि वादी प्रतिवादी के परस्पर जीतने की इच्छा होने पर ही वाद प्रवर्त्त होता है। इसलिए जल्प और वितंडा के समान विवाद में भी स्पष्ट रूप से सभ्य, सभापति आदि की अपेक्षा होती है। अर्थात् जिस प्रकार जल्प और वितण्डा जीत को चाहने वाले में ही होता है, उसी प्रकार वाद भी विजिगिषु पुरुषों में ही होता है। इसलिए वीतराग कथा को वाद नहीं कहते हैं // 26-27 // .. जल्प और वितंडा के समान जय और पराजय का विधान होने से वाद में भी सभ्य, सभापति आदिकी अपेक्षा होती है। अन्यथा (यदि वाद में सभ्य आदि की अपेक्षा नहीं की जायेगी तो) अन्यत्र (जल्प और वितंडा में) भी सभ्य आदि की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जल्प और वितंडा से वाद में कोई विशेषता नहीं है // 28 // इसलिए ऐसा होने पर अनुमान से यह सिद्ध होता है कि लोक प्रसिद्ध वाद (मुकदमा लड़ना आदि) के समान जीतने की इच्छा रखने वाले वादी प्रतिवादी में होने वाला वाद भी अपने अभिप्रेत विषय का व्यवस्थापक होने से चतुरंग (वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति युक्त) है॥२८-२९॥