________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 171 सर्वं पर्यायभेदादेव भिन्नं क्रियाभेदेन पर्यायस्य भेदोपलब्धेरिति / एतत्संयोगजा: पूर्ववत्परे पंचभंगा: प्रत्येतव्या इत्येका सप्तभंगी। एवमेता एकविंशतिसप्तभंग्यः। वैपरीत्येनापि तावत्यः प्रपंचतोभ्यूह्या। तथोत्तरनयसप्तभंग्यः एवंभूतों की विवक्षा हो जाने से सातवें विधिप्रतिषेधावक्तव्य भंग की कल्पना कर लेनी चाहिए। यह एक सप्तभंगी हुई। इस प्रकार छह, पाँच, चार, तीन, दो एक, (6+5+4+3+2+1=21) ये सब मिलाकर इक्कीस सप्तभंगियाँ होती हैं। _ विपरीत रूप से भी उतनी ही संख्या वाली 21 सप्तभंगियाँ विस्तार से स्वयं अपने आप तर्कणा करने योग्य हैं। अर्थात् एवंभूतनय की अपेक्षा पढ़ाते समय ही मनुष्य पाठक है। अन्य पर्यायों में या बहुवचन आदि अवस्था में मनन करने की पर्याय में, सामान्य मनुष्यपन के व्यवहार में संगृहीत सत् पदार्थों में और संकल्पित पदार्थों में, वह पाठक नहीं है। अतः एवंभूत नय की अपेक्षा अस्तित्व धर्म को मानकर शेष छह नयों की अपेक्षा नास्तित्व की कल्पना करके दो मूल भंगोंकी भित्ति पर छह सप्तभंगियाँ बना लेना। तथा समभिरूढ़ से विधि की कल्पना करके और शब्द, ऋजुसूत्र, व्यवहार, संग्रह और नैगम नय की अपेक्षा से नास्तित्व की कल्पना में पाँच सप्तभंगियाँ बन जाती हैं। समभिरूढ़ नय की मनीषा है कि सभी पदार्थ अपने-अपने वाच्य पर्यायों में ही आरूढ़ हैं। इसकी व्याप्य दृष्टि में पूर्व-पूर्व नयों के व्यापक विषय नहीं दिखते हैं। अतः समभिरूढ़ से अस्तित्व और शब्द आदि से नास्तित्व ऐसे दो मूल भंगों से पाँच सप्तभंगियाँ बन जाती हैं। तथा शब्द नय की अपेक्षा अस्तित्व और ऋजुसूत्र, व्यवहार, संग्रह, नैगमों की अपेक्षा नास्तित्व को मानते हए दो मल भंगों से चार सप्तभंगियाँ बन जाती हैं। शब्दनय को काल. कारक आदि से भिन्न पदार्थ ही दिख रहे हैं। संकल्पित या संगृहीत अथवा व्यवहार में आने वाले पदार्थ या सरल पर्यायें मानों हैं ही नहीं। तथा ऋजसत्र की अपेक्षा पहिले अस्तित्व भंग की कल्पना कर व्यवहार, संग्रह.. नयों से दूसरे नास्तित्व भंग की अपेक्षा हुए दो मूल भंगों द्वारा तीन सप्तभंगियाँ बना लेना। ऋजुसूत्र नय वर्तमान पर्यायों पर ही दृष्टि रखता हैं। व्यवहार करने योग्य या संग्रह प्रयोजक धर्म अथवा संकल्प इनका स्पर्श नहीं करता है। तथा व्यवहार नय से अस्तित्व की कल्पना कर संग्रह, नैगम नयों से प्रतिषेध की कल्पना करते हुए दो मूलभंगों द्वारा दो सप्तभंगियाँ बना लेना। व्यवहार में आने वाले द्रव्य, पर्याय आदि ही पदार्थ हैं। सत् सामान्य से संगृहीत पदार्थ कहीं एकत्रित नहीं होते हैं। तथा संग्रहनय की अपेक्षा से अस्तित्व मानते हुए नैगम की अपेक्षा नास्तित्व भंग की कल्पना कर पूर्वोक्त पद्धति अनुसार एक सप्तभंगी बना लेनी चाहिए। इस प्रकार विपरीतपने करके भी 6+5+4+3+2+1=21 इक्कीस सप्तभंगियाँ हुईं। उत्तरवर्ती नयों करके पूर्ववर्ती नयों के विषय का सर्वथा निषेध नहीं कर दिया गया है, जिससे कि इनको कुनयपने का प्रसंग प्राप्त हो, किन्तु उपेक्षा भाव है। पूर्व की सप्तभंगियों में भी तो उत्तरवर्ती नयों द्वारा प्रतिषेध कल्पना उपेक्षा भावों के अनुसार ही की गयी थी। अन्य कोई उपाय नहीं। उसी प्रकार मूल नयों के समान उत्तर नयों की भी सम्पूर्ण सप्तभंगियाँ समझ लेनी चाहिए। परस्पर में विरुद्ध दी अर्थों में से किसी भी एक की अथवा नैगमनय के नौ भेद प्रभेदों में से किसी भी एक की अपने गृहीत विषय अनुसार विधि करने पर और उसके प्रतिपक्षी नय का आश्रय लेने से उस धर्म का प्रतिषेध करने