________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 170 विधिकल्पना सर्वं कालादिभेदाद्भिन्नं विवक्षितकालादिकस्यार्थस्याविवक्षितकालादित्वानुपपत्तेरिति। तं प्रति समभिरूढैवंभूताश्रया प्रतिषेधकल्पना न सर्वं कालादिभेदादेव भिन्नं पर्यायभेदात् क्रियाभेदाच्च भिन्नस्यार्थस्य प्रतीते: इति मूलभंगद्वयं पूर्ववत् परे पंच भंगा: प्रत्येया इति द्वे सप्तभंग्यौ / तथा समभिरूढ्याश्रया विविधकल्पना सर्वं पर्यायभेदाद्भिन्नं विवक्षितपर्यायस्याविवक्षितपर्यायत्वेनानुपलब्धेरिति तं प्रत्येवंभूतांश्रया प्रतिषेधकल्पना न ___ इसी प्रकार शब्दनय का आश्रय कर लेनेसे विधि की कल्पना करना कि काल, कारक आदि से विभिन्न होते हुए सभी पदार्थ अस्तिस्वरूप हैं क्योंकि विवक्षा को प्राप्त हो रहे काल, कारक आदि से विशिष्ट हुए अर्थ को अविवक्षित काल, कारक आदि से सहितपना असिद्ध है अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने नियत काल, कारक, वचन आदि की अपेक्षा अस्तिरूप हैं। इस प्रकार अस्तित्व की कल्पना करने वाले उस वादी के प्रति समभिरूढ़ और एवंभूत नयों का आश्रय लेती हई प्रतिषेध कल्पना कर लेनी चाहिए। क्योंकि केवल काल. कारक आदि के भेद से ही जगत में भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, ऐसा नहीं है किन्तु पर्यायों के भेद से और क्रिया परिणतियों के भेद से भिन्न-भिन्न स्वरूप पदार्थों की प्रतीति होती है अर्थात् समभिरूढ़ और एवंभूत नय पर्याय और क्रिया-परिणतियों से परिणत पर्यायों की सत्ता को मानते हैं। अतः शब्दनय का व्यापक विषय इनकी दृष्टि में नास्ति है। इस प्रकार दो मूल भंगों को बनाते हुए पूर्व प्रक्रिया के समान शेष पाँच भंगों को भी प्रतीत कर लेना चाहिए। इस प्रकार शब्द नय की अपेक्षा अस्तित्व और समभिरूढ़ एवंभूतों की अपेक्षा नास्तित्व धर्म को मानते हुए दो मूल भंगों द्वारा एक-एक सप्तभंगी को बनाने से दो सप्तभंगियाँ हो जाती हैं। तथा समभिरूढ़ नय का आश्रय कर विधि की इस प्रकार कल्पना करना चाहिए कि सम्पूर्ण पदार्थ पृथक्-पृथक् पर्यायों को कहने वाले पर्यायवाची शब्दों के भेद से भिन्न अस्तिस्वरूप हैं, क्योंकि विवक्षा में प्राप्त की गई पर्याय की अविवक्षित अन्य पर्यायत्व से उपलब्धि नहीं हो पाती है। इस प्रकार कहने वाले उस विद्वान् के प्रति एवंभूतनय का आश्रय लेते हुए प्रतिषेध की कल्पना कर लेना चाहिए। __ क्योंकि पर्याय भेदों से भिन्न सभी पदार्थ जगत् में भेद रूप ही हैं ऐसा नहीं है। किन्तु पृथक्-पृथक् क्रियापरिणतियों के भेद से पर्यायों के भेद की उपलब्धि हो रही है। अर्थात् क्रियाप्रधान एवंभूत नय की अपेक्षा पढ़ाते समय ही (कोई) अध्यापक कहलाता है, अन्य काल में नहीं। इसलिए समभिरूढ़ नय की अपेक्षा जिस पदार्थ की विधि है उसका एवंभूतनय की अपेक्षा निषेध है। इन विधि और निषेध के संयोग से उत्पन्न अन्य पाँच भंग भी पूर्व प्रक्रिया के समान समझ लेने चाहिए। अर्थात् समभिरूढ़ और एवंभूत नयों की क्रम से विवक्षा करने पर तीसरा उभय भंग है। समभिरूढ़ और एवंभूत के गोचर धर्मों की युगपत् विवक्षा करने पर चौथा अवक्तव्य भंग है। विधि के प्रयोजक समभिरूढ़ नय का आश्रय करने और समभिरूढ़, एवंभूत दोनों नयों के एक साथ कथन का आश्रय करने से पाँचवाँ विधि अवक्तव्य भंग है। प्रतिषेध के प्रेरक एवंभूत नय का आश्रय ले लेने और समभिरूढ़ एवंभूत दोनों को एक साथ कहने का आश्रय कर लेने से छठा प्रतिषेधावक्तव्य भंग है। विधि प्रतिषेधों के नियोजक नयों का आश्रय करने से और युगपत् समभिरूढ़