________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 169 स्वपरपक्षव्यवस्थापननिराकरणयोः परमार्थतोनुपपत्तेरिति तं प्रति तावदृजुसूत्राश्रयात्प्रतिषेधकल्पना, न सर्वं द्रव्याद्यात्मकं, पर्यायमात्रस्योपलब्धेरिति / शब्दसमभिरूढैवंभूताश्रयात् प्रतिषेधकल्पना न सर्वं द्रव्याद्यात्मकं, कालादिभेदेन, पर्यायभेदेन क्रियाभेदेन च भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेः इति। प्रथमद्वितीयभंगौ पूर्ववदुत्तरे भंगा इति चतस्रः सप्तभंग्यः प्रतिपत्तव्याः। तथर्जुसूत्राश्रयाविधिकल्पना सर्वं पर्यायमात्रं द्रव्यस्य क्वचिदव्यवस्थितेरिति तं प्रति शब्दाश्रयात्प्रतिषेधकल्पना। समभिरूद्वैवंभताश्रयाच्च न सर्वं पर्यायमानं कालादिभेदेन पर्यायभेदेन क्रियाभेदेन च भिन्नस्य पर्यायस्योपपत्तिमत्त्वादिति। द्वौ भंगौ क्रमाक्रमार्पितोभयनयास्तृतीयचतुर्थभंगाः त्रयोन्ये प्रथमद्वितीयतृतीया एव वक्तव्योत्तरा यथोक्तनययोगादवसेया इति तिस्रः सप्तभंग्यः। तथा शब्दनयाश्रयात् की कल्पना करनी पड़ती है क्योंकि 'न सर्वं द्रव्याद्यात्मकं' सभी पदार्थ कथंचित् द्रव्य या सहभावी पर्यायोंस्वरूप ही नहीं हैं। क्योंकि केवल वर्तमान काल की सूक्ष्म, स्थूल पर्यायें ही दृश्यमान हैं। द्रव्य या भेद-प्रभेदवान चिरकालीन पर्यायें तो नहीं दीख रही हैं। अतः नास्तित्व भंग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयों के आश्रय से प्रतिषेध की कल्पना करना कि 'न सर्वं द्रव्याद्यात्मकं सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् द्रव्य, पर्याय आदि स्वरूप ही नहीं हैं क्योंकि काल, कारक आदि के भेद से अथवा पर्यायवाची शब्दों के वाच्य अर्थ का भेद करके तथा भिन्न-भिन्न क्रिया परिणतियों के भेद करके भिन्न-भिन्न अर्थों की उपलब्धि हो रही है। मात्र द्रव्य और पर्यायें ही नहीं दीख रहे हैं। इस प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा पहला भंग और शेष चार नयों की अपेक्षा दूसरा-दूसरा भंग बना कर पहले-दूसरे भंगों को बना लेना / पश्चात् पूर्वक्रम के अनुसार क्रम अक्रम आदि द्वारा शेष उत्तरवर्ती पाँच भंगों को बना लेना चाहिए। इस प्रकार ये चार सप्तभंगियाँ समझ लेनी चाहिए। उसी प्रकार ऋजुसूत्र नय का आश्रय लेने से विधि की कल्पना करना- 'सर्वं जगत् पर्यायमात्रमस्ति' सम्पूर्ण पदार्थ केवल पर्याय स्वरूप ही हैं। नित्यद्रव्य की कहीं भी व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार ऋजुसूत्रनय से अस्तित्व की कल्पना करने वाले उस वादी के प्रति शब्द नय का आश्रय लेने से निषेध की कल्पना कर लेना तथा समभिरूढ़ और एवंभूत नय का आश्रय लेने से भी निषेध की कल्पना कर लेना चाहिए क्योंकि सभी पदार्थ केवल काल आदि द्वारा अभेद को धारने वाली पर्यायों स्वरूप नहीं हैं। किन्तु काल, लिंग आदि के भेद करके अथवा भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्दों के भेद करके एवं पृथक्-पृथक् क्रिया परिणतियाँ करके भिन्न हो रही पर्यायें ही सिद्धिमार्ग पर लायी जा चुकी हैं। अर्थात्-शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय तो काल, कारक, रूढ़ि और क्रियापरिणतियों से पृथक्-पृथक् बन रही पर्यायों का ही सत्त्व मानते हैं, वर्तमान काल की सामान्य रूप से हो रही पर्यायों का अस्तित्व नहीं मानते हैं। अत: तीन प्रकारों से दूसरा भंग बन गया। __मूलभूत दो भंगों को बनाकर क्रम और अक्रम से यदि दो नयों को विवक्षित किया जायेगा तो तीन प्रकार के तीसरे, चौथे भंग बन जायेंगे। जिनकी उत्तर कोटि में अवक्तव्य पद लग गया है ऐसे प्रथम, द्वितीय और तीसरे भंग ही प्रक्रिया अनुसार ऊपर कहे गये नयों के योग से पाँचवें, छठे, सातवें-ये अन्य तीन भंग समझ लेने चाहिए। इस प्रकार ऋजुसूत्र नय से अस्तित्व की कल्पना करते हुए और शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत नयों से नास्तित्व को मानते हुए दो मूल भगों के द्वारा तीन सप्तभंगियाँ हुईं।