________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 151 अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थतः कालभेदेप्यभिन्नार्थव्यवस्था / तथा करोति क्रियते इति कारकयोः कर्तृकर्मणोर्भेदेप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति / तदपि न श्रेयः परीक्षायां / देवदत्तः कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसंगात् / तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियंते, लिंगमशिष्यं लोकाश्रयत्वादिति / तदपि न श्रेयः, पटकुटीत्यत्रापि पटकुट्योरेकत्वप्रसंगात् तल्लिंगभेदाविशेषात्। तथापोंभ इत्यत्र संख्याभेदेप्येकमर्थं भिन्न-भिन्न अर्थ को विषय कर देने से ही क्या एक अर्थपना नहीं होगा। क्योंकि जो सबको देख चुका है ऐसे इस विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ भूतकाल सम्बन्धी पुरुष होता है, वह भविष्यकाल सम्बन्धी उत्पन्न होगा-इस जनिता शब्द का अर्थ नहीं है। भविष्य काल में होने वाले पुत्र को अतीत काल सम्बन्धीपन का विरोध है। यदि भूतकाल में भविष्यकाल रूप का अध्यारोप करने से दोनों शब्दों का एक अर्थ अभीष्ट कर लिया जाता है, तब तो काल-भेद होने पर भी वास्तविक रूप से अर्थों के अभेद की व्यवस्था नहीं हो सकती। अर्थात् शब्दनय द्वारा हमें यह समझाना है कि 'विश्वं दृक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनिता' इसके सरल अर्थ से 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' इसका अर्थ भिन्न है, 'तुम पढ़ोगे और मैं तुमको देख लूंगा' इसकी अपेक्षा ‘पढ़ चुके हुए तुमको मैं देखूगा' - इसका अर्थ विलक्षण प्रतीत हो रहा है। ___इसी प्रकार वे वैयाकरण जन 'करोति' - इस दशगणी के प्रयोग की संगति को करने वाले कर्ताकारक और ‘किया जाय' जो इस प्रकार कर्म प्रक्रिया के पद की संगति रखने वाले कर्मकारक इन दो कारकों का भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ का आदरपूर्वक ग्रहण कर रहे हैं, अर्थात् देवदत्त किसी अर्थ को कर रहा है इसका जो अर्थ है और देवदत्त के द्वारा कुछ किया जाता है, इसका भी वही अर्थ है ऐसी प्रतीति हो रही है। इस प्रकार वैयाकरणों के कहने पर आचार्य कहते हैं कि परीक्षा करने पर वह भी श्रेष्ठ नहीं ठहरता है। क्योंकि कर्ता और कर्म के अभेद मानने पर तो देवदत्त चटाई को रचता है। इस स्थल में भी कर्ता देवदत्त और कर्म बन रहे चटाई के अभेद हो जाने का प्रसंग आ जायेगा। अत: स्वातंत्र्य या परतंत्रता को पुष्ट करते हुए यहाँ भिन्न-भिन्न अर्थ का मानना आवश्यक है। उसी प्रकार वे वैयाकरण पुष्यनक्षत्र तारा है, यहाँ व्यक्तियाँ या लिंग के भेद होने पर भी उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थ का आदर कर रहे हैं। पुष्य शब्द पुलिंग है, और तारका शब्द स्त्रीलिंग है। फिर भी दोनों का अर्थ एक है। उन व्याकरणवेत्ताओं का अनुभव है कि लिंग का विवेचन कराना शिक्षा देने योग्य नहीं है। किसी शब्द के लिंग को नियत करना लोक के आश्रय है। लोक में अग्नि शब्द स्त्रीलिंग कहा जाता है। किन्तु शास्त्र में पुलिंग है। एक ही स्त्री को कहने वाला दारा, स्त्री, कलत्र शब्द भिन्न-भिन्न लिंग के धारक हैं। आयुध विशेष को कहने वाला शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। अस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। अब आचार्य कहते हैं कि वह वैयाकरण का कथन भी श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि व्यक्ति या लिंग का भेद होने पर भी यदि अर्थ में भेद नहीं माना जायेगा तो पुल्लिंग पट और स्त्रीलिंग झोंपड़ी यहाँ भी पट और कुटी के एक हो जाने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि उन शब्दों के लिंग का भेद तो अन्तररहित है, यानी जैसा पुष्य और तारका में लिंग का भेद है, वैसा ही पट और कुटी में लिंग का भेद है। फिर इनका एक अर्थ क्यों नहीं मान लिया जावे।