________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 158 एवमेते शब्दसमभिरूद्वैवंभूतनया: सापेक्षाः सम्यक्, परस्परमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपादयतिएतेन्योन्यमपेक्षायां संतः शब्दादयो नयाः। निरपेक्षाः पुनस्ते स्युस्तदाभासाविरोधतः // 8 // के पुनरत्र सप्तसु नयेष्वर्थप्रधाना: के च शब्दप्रधानाः नया:? इत्याह- . . तत्रर्जुसूत्रपर्यंताश्चत्वारोर्थनया मताः। त्रयः शब्दनया: शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः // 81 // द्रव्यशब्द भी क्रियाशब्द ही हैं। सभी शब्दों में क्रियाशब्दपना घट जाता है। जातिशब्द, गुणशब्द, क्रियाशब्द एवं संयोगीशब्द, समवायीशब्द या यदृच्छा शब्द और सम्बन्ध वाचकशब्द इस प्रकार प्रसिद्ध हो रहे शब्दों की पाँच प्रकार की प्रवृत्ति तो केवल व्यवहार से ही है, निश्चय से नहीं है, इस सिद्धान्त को यह एवम्भूत नय मानता है। इस प्रकार ये शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत, तीन नय यदि अपेक्षाओं से सहित हैं, तब तो समीचीन नय हैं और परस्पर में अपेक्षा नहीं रखते हए केवल एकान्त से अपने विषय का आग्रह करने वाले तो ये तीनों मिथ्या हैं, कुनय हैं अर्थात् 'निरपेक्षाः नया: मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् '. (श्रीसमन्तभद्राचार्यः)। प्रतिपक्षी धर्म का निराकरण करने वाले कुनय हैं और प्रतिपक्षी धर्मों की अपेक्षा रखने वाले सुनय हैं। प्रमाणों से उन धर्मों की और अन्य धर्म या धर्मों की भी प्रतिपत्ति हो जाती है। तथा नय से अन्य धर्मों का निराकरण नहीं करते हुए उसी धर्म की प्रतिपत्ति होती है। तथा दुर्नय से तो अन्य धर्मों का निराकरण करते हुए एक ही धर्म का आग्रह किया जाता है। इस बात का स्वयं ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी प्रतिपादन करते हैं। ये शब्द आदि तीन नय परस्पर में स्वकीय-स्वकीय विषयों की अथवा अन्य धर्मों की अपेक्षा रख पर तो समीचीन नय हैं। किन्तु परस्पर अपेक्षा नहीं रखने वाले तीनों आभास हैं। अर्थात् शब्दनय यदि समभिरूढ़ और एवंभूत के नेय धर्मों की अपेक्षा नहीं रखता है, तो यह शब्दाभास है। तथा समभिरूढ़ नय यदि शब्द और एवंभूत के विषय का निराकरण कर केवल अपना ही अधिकार जमाना चाहता है, तो वह समभिरूढ़ाभास है। इसी प्रकार एवंभूत भी शब्द और समभिरूढ़ के विषय का तिरस्कार करता हुआ एवंभूताभास है। क्योंकि ऐसा करने से विरोध दोष आता है। अत: परस्पर सापेक्ष नय समीचीन है।।८०॥ इन सातों नयों में कौन से नय अर्थ की प्रधानता से व्यवहार करने योग्य हैं? और कौनसे नय शब्द की प्रधानता से प्रवृत्त होते हैं? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं - उन सात नयों में नैगम से प्रारम्भ कर ऋजुसूत्र पर्यन्त चार तो अर्थनय माने गये हैं। अर्थात् नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र ये चार अर्थ नय हैं। शेष बचे हुए नय वाचक शब्द द्वारा कहे गये अर्थ को विषय करने वाले शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत-ये तीन शब्दनय हैं। इन तीनों की शब्द के वाच्य अर्थ में विशेष रूप से तत्परता रहती है और पहले चार नयों का अर्थ में विशेष लक्ष्य रहता है॥८१।।