________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 150 एहि मन्ये रथेनेत्यादिकसाधनभिद्यपि। संतिष्ठेतावतिष्ठतेत्याधुपग्रहभेदने // 71 // तन्न श्रेयः परीक्षायामिति शब्दः प्रकाशयेत् / कालादिभेदनेप्यर्थाभेदनेतिप्रसंगतः // 72 // ये हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन 'धातुसंबंधे प्रत्यया' इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भावि कृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेप्येकपदार्थमादृता यो विश्वं दृक्ष्यति सोस्य पुत्रो जनितेति भविष्यत्कालेनातीतकालस्याभेदोभिमतः तथा व्यवहारदर्शनादिति / तन्न श्रेयः परीक्षायां मूलक्षते: कालभेदेप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसंगात् रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेः। आसीद्रावणो राजा शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोर्भिन्नविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत एव। न हि विश्वं दृष्टवानिति विश्वदृशि त्वेतिशब्दस्य योर्चातीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकालः / पुत्रस्य भाविनोतीतत्वविरोधात् / मानते हैं। ऐसे ही 'आप' यह शब्द बहुवचन है, स्त्रीलिंग है और ‘अम्भः' शब्द एक वचन है, नपुंसकलिंग है। ये दोनों शब्द पानी को कहते हैं। यहाँ भी लिंग और संख्या के भेद होने पर भी अनेक मनुष्य व्यवहार नय के अनुसार अर्थभेद को नहीं मानते हैं। तथा “ए बालक! इधर आओ” “तुम यह समझते होंगे कि मैं रथ पर चढ़ कर जाऊँगा, किन्तु अब तुम समझो कि मैं नहीं जा सकूँगा, तुम्हारा पिता चला गया (तेरा बाप भी कभी गया था)।” ऐसे उपहास के प्रकरण पर मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तमपुरुष और उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष हो जाता है। मध्यम पुरुष ‘मन्यसे' के स्थान पर उत्तम पुरुष मन्ये' हो गया है और यास्यामि के स्थान पर यास्यसि हो गया है। यहाँ साधन का भेद होने पर भी व्यवहार नय की अपेक्षा कोई अर्थभेद नहीं माना गया है। व्याकरण में युष्मत्, अस्मत् का ही बदलना कहा है, प्रथम पुरुष की भी सम्भवता है। तथा 'समवप्रविभ्य:स्थः' इस सूत्र से आत्मनेपद करने पर संतिष्ठेत, अवतिष्ठेत, प्रतिष्ठेत या संहरति, विहरति, परिहरति, आहरति यहाँ उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते' इस नियम को मानने के लिए व्यवहार नय बाध्य नहीं होना चाहता है। किन्तु ये उक्त प्रकार उनके मन्तव्य परीक्षा करने पर श्रेष्ठ नहीं ठहर सकेंगे। इस प्रकार शब्दनय प्रकाशित करता है। क्योंकि काल, कारक आदि के भेद होने पर भी यदि अर्थ का भेद नहीं माना जायेगा तो अतिप्रसंग दोष आयेगा॥६९-७२॥ जो कोई भी पण्डित व्याकरण शास्त्र जानने वालों के व्यवहार की नीति के अनुरोध से यह अर्थ मान बैठे हैं कि लकारार्थ प्रक्रिया के 'धातुसम्बन्धे प्रत्यया:' धातु के अर्थों के सम्बन्ध में जिस काल में जो प्रत्यय पूर्व सूत्रों में कहे गये हैं, वे प्रत्यय उन कालों से अन्य कालों में भी हो जाते हैं, इस सूत्र का आरम्भ कर विश्व को देख चुकने वाला पुत्र इसके होगा या होनहार जो कर्त्तव्य होने वाला था वह हो गया, इन प्रयोगों में काल भेद होने पर भी अर्थ का भेद नहीं माना जायेगा तो अतिप्रसंग दोष आयेगा। क्योंकि ऐसा मानने पर अतीतकाल सम्बन्धी रावण और भविष्यकाल में होने वाले शंख नामक चक्रवर्ती के एकपना सिद्ध हो जावेगा। अर्थात् रावण और चक्रवर्ती दोनों एक व्यक्ति हो जायेंगे। कोई इस प्रसंग का इस प्रकार निवारण करना चाहता है कि रावण राजा पूर्व काल में हुआ था और शंख नामक चक्रवर्ती भविष्यकाल में होगा। इस प्रकार दो शब्दों की भिन्न-भिन्न अर्थों में विषयता है, इस कारण दोनों राजा एक व्यक्ति रूप अर्थ नहीं बन पाते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानोगे तो प्रकरण में विश्वदृश्वा और जनिता इन दो शब्दों के भी