________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 153 इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसंगात्। ततः कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसंगादिति शब्दनयः प्रकाशयति तद्भेदेप्याभेदे दूषणांतरं च दर्शयति तथा कालादिनानात्वकल्पनं निःप्रयोजनम् / सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः।७३। कालादिभेदादर्थस्य भेदोस्त्विति हि तत्परिकल्पनं प्रयोजनवन्नान्यथा स च नास्तीति निःप्रयोजनमेव तत्। किं च कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयतां / येषां कालादिभेदेपि पदार्थैकत्वनिश्चयः // 74 / / है। अन्यथा यानी ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकार से मानोगे तो अतिप्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् - पण्डितमन्य, पण्डितमन्य या देवानांप्रिय, देवप्रिय, आदि में भी भेद नहीं हो सकेगा। किन्तु ऐसे स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। इस बात को शब्दनय प्रकाशित कर देता है, यह समझना चाहिए। ___उस शब्द के भेद होने पर भी यदि अर्थ का भेद नहीं माना जायेगा तो अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। इस रहस्य को श्री विद्यानन्द आचार्य दिखलाते हैं। यदि शब्द नय की अपेक्षा से लिंग आदि से भेद नहीं मानोगे तो लकारों में या कृदन्त में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में काल, संख्या आदि के नानापन की कल्पना करना निःप्रयोजन सिद्ध होगा। एक ही काल या एक ही उपसर्ग आदि के द्वारा वास्तविक रूप से अभीष्ट कार्य की सिद्धि हो जायेगी // 73 // क्योंकि काल, कारक, लिंग आदि के भेद से यदि अर्थ का भेद है, तब तो उन काल आदि की कल्पना करना प्रयोजन सहित हो सकेगा, अन्यथा नहीं। किन्तु व्यवहार नय का अवलम्बन करने वाले के यहाँ वह अर्थभेद तो नहीं माना गया है। अत: वह काल आदि के नानापन की कल्पना करना प्रयोजन रहित ही है. दसरी बात एक यह भी है - जिन वैयाकरणों के यहाँ काल, कारक आदि के भेद होने पर भी पदार्थ के एकपने का निर्णय होता है, पर्वते वसति', 'पर्वतमधिवसति' - इन दोनों का अर्थ एक ही है। दार और अबला का एक ही अर्थ है; उन व्यवहारियों के अनेक काल, कारक, लिंग आदि में से किसी एक ही काल की या कारक आदि की कल्पना कर लेनी चाहिए। भावार्थ - तीन काल, छह कारक, तीन लिंग, प्र परा, आदि अनेक उपसर्ग क्यों माने जा रहे हैं? शब्दकृत और अर्थकृत गौरव क्यों लादा जा रहा है? अतः शब्दशक्ति के अनुसार परिशेष में उनको अर्थभेद मानना आवश्यक होगा। पर्वत के ऊपर सामान्य पथिक के समान निवास करने पर पर्वत में निवास कहा जाता है और पर्वत के ऊपर अधिकार कर पर्वत का आक्रमण करते हुए वीरतापूर्वक जो पर्वत के ऊपर निवास किया जाता है, वहाँ 'उपान्वध्याङ् वसः' इस सूत्र से आधार की कर्म संज्ञा होकर द्वितीया हो जाती है। विनीत, निर्बल, सुकुमार स्त्री के लिए अबला शब्द आता है। तथा पुरुषार्थ रखने वाली और अवसर पर दुष्टों को हथखंडे लगाने वाली स्त्री के लिए दार शब्द प्रयुक्त किया जाता है। अतः लिंग भेद, कारक भेद, उपसर्ग आदि का भेद व्यर्थ नहीं है॥७४।।