________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 152 जलाख्यमादृताः संख्याभेदस्योद्भेदकत्वात् गुर्वादिवदिति। तदपि न श्रेयः परीक्षायां। घटस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषंगात् संख्याभेदाविशेषात् / एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेपि पदार्थमभिन्नमादृताः “प्रहासे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतेरस्मदेकवच्च" इति वचनात् / तदपि न श्रेयः परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्मत्साधनाभेदेप्येकार्थत्वप्रसंगात्। तथा “संतिष्ठते अवतिष्ठत' इत्यत्रोपसर्गभेदेप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वर्थमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेयः। तिष्ठति प्रतिष्ठत उसी प्रकार वे वैयाकरण 'आपः' इस स्त्रीलिंग बहुवचन शब्द और 'अम्भः' इस नपुंसकलिंग एक वचन शब्द यहाँ संख्या भेद होने पर एक 'जल' नामक अर्थ को स्वीकार कर लेते हैं। उनके यहाँ संख्या का भेद अर्थ का भेदक नहीं माना गया है, जैसे कि गुरु, साधन आदि में संख्या का भेद होने पर अर्थभेद नहीं है। अर्थात् - 'लोष्ठेष्टिका पाषाणः गुरुः' 'मृतिकादण्डकुलाला: घट साधनं' 'अन्नप्राणा:' 'गुरवः सन्ति' यहाँ संख्याभेद होने पर भी अर्थभेद नहीं है। एक गुरु व्यक्ति को या राजा को बहुवचन से कहा जाता है। इस पर आचार्य कहते हैं कि उन वैयाकरणों का कथन भी परीक्षा की कसौटी पर श्रेष्ठ नहीं उतरता है। क्योंकि एक घट और अनेक तन्तुयें यहाँ भी संख्या के भेद से एकपन हो जाने का प्रसंग होगा, क्योंकि संख्या भेद 'आप:' और 'जल' के समान घट और तन्तुओं में एकसा है। यहाँ वहाँ कोई विशेषता नहीं है। किन्तु एक घट और अनेक तन्तुओं का एक अर्थ किसी ने भी नहीं स्वीकार किया है। अतः शब्दनय संख्या का भेद होने पर अर्थभेद को व्यक्तरूप से बता रहा है। हे! इधर आओ, तुम मन में मान रहे होंगे कि मैं उत्तम रथ द्वारा विदेश जाऊँगा किन्तु तुम नहीं जाओगे, तुम्हारा पिता भी गया था? __इस प्रकार यहाँ साधन का भेद होने पर भी वे व्यवहारी जन एक ही पदार्थ को अभिन्न स्वीकार करते हैं। ऐसा व्याकरण में सूत्र कहा है कि जहाँ हँसी करना समझाजाए वहाँ ‘मन्य' धातु के प्रकृतिभूत होने पर दूसरी धातुओं के उत्तम पुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है। और मन्यति धातु को उत्तम पुरुष होजाता है, जो कि एक अर्थ का वाचक है। किन्तु वह भी उनका कथन परीक्षा करने पर अत्युत्तम नहीं घटित होता है। क्योंकि, इस प्रकार मैं पका रहा हूँ, तू पचाता है इत्यादि स्थलों में भी अस्मद् और युष्मत् साधन के अभेद होने पर भी एक अर्थपने का प्रसंग आयेगा। __उसी प्रकार संस्थान करता है, अवस्थान करता है इत्यादि प्रयोगों में उपसर्ग के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को मानते हैं। वैयाकरणों की मनीषा है कि धातु के केवल अर्थ का ही द्योतन करने वाले उपसर्ग होते हैं। क्रिया अर्थ की वाचक धातुएँ हैं, उसी अर्थ का उपसर्ग द्योतन कर देते हैं। उपसर्ग किसी नवीन अर्थ के वाचक नहीं हैं। इस प्रकार उनका कहना भी प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि इस प्रकार मानने पर ठहरता है, प्रस्थान करता है, इन प्रयोगों में भी स्थितिक्रिया और गमनक्रिया के अभेद हो जाने का प्रसंग आयेगा। अतः यह सिद्धांत करना चाहिए कि काल, कारक, संख्या आदि के भेद हो जाने से शब्दों का अर्थ भिन्न ही हो जाता