________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 138 शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमोस्ति परो यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेस्मिन्नितीरणम् // 41 // सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमति: / दुर्नीति: स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदुः।४२॥ क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चयः। विनिर्दिष्टोर्थपर्यायाशुद्धद्रव्यगनैगमः // 43 // सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयात् // 44 // गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ। नैगमोन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णयः // 45 // विद्यते चापरोशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ। अर्थीकरोति यः सोत्र ना गुणीति निगद्यते // 46 // अब नैगम के द्रव्यपर्यायनैगम भेद के चार प्रभेदों का वर्णन करते हैं। इनमें प्रथम शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगम तो इस प्रकार है कि इस संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत् स्वरूप होता हुआ क्षण मात्र में नष्ट हो जाता है, यों कहने वाला यह नय है। यहाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। विशेषण रूप शुद्ध द्रव्य को गौण से और विशेष्य हो रहे अर्थपर्याय सुख को प्रधानरूप से यह नय विषय करता है॥४१॥ 'सुख स्वरूप अर्थपर्याय से सत्त्व सर्वथा भिन्न ही है।' इस प्रकार का अभिप्राय तो दुर्नीति है। क्योंकि सुख और सत्त्व के सर्वथा भेद मानने में अनेक प्रकार की बाधाओं से सहितपना है, इस प्रकार नयों के जानने वाले विद्वान् कहते हैं अर्थात् सुख और सत्त्व का सर्वथा भेद का अभिमान तो शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगम का आभास है॥४२॥ ___ दूसरा, यह संसारी जीव एक क्षण तक सुखी है। इस प्रकार निश्चय करने वाला विषयी नय तो अर्थपर्याय अशुद्ध द्रव्य को प्राप्त नैगम विशेषरूपेण कहा गया है। यहाँ सुख तो अर्थपर्याय है, और संसारी जीव अशुद्ध द्रव्य है अत: इस नय से अर्थपर्याय को गौण रूप से और अशुद्ध द्रव्य को प्रधान रूप से विषय किया गया है॥४३॥ सुख और जीव को सर्वथा भेद रूप से कहना तो दुर्नय ही है। क्योंकि गुण और गुणी में सर्वथा भेद कहना प्रमाणों से बाधित है। जिन विद्वानों के प्रबोध परिशुद्ध हैं, उन्होंने संशयरहितपने से इस बात को कहा है कि सुख और जीव का सर्वथा भेद कहना अर्थपर्याय अशुद्ध द्रव्य नैगमाभास है, ऐसा जानना चाहिए // 44 // तीसरा, शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय नैगम इन दोनों से भिन्न इस प्रकार है, जो कि शुद्ध द्रव्य और व्यंजनपर्याय को विषय करता है। जैसे कि यह सत् सामान्य चैतन्य स्वरूप है, इस प्रकार का निर्णय करना शुद्धद्रव्य व्यंजनपर्यायनैगम नय है। यहाँ सत् सामान्य तो शुद्ध द्रव्य है और उसका चैतन्यपना व्यंजन पर्याय है॥४५॥ इनसे भिन्न चौथा, द्रव्यपर्याय नैगमनय विद्यमान है जो अशुद्ध द्रव्य और व्यंजन पर्याय को विषय करता है, जैसे कि मनुष्य गुणी है, इस प्रकार इस नय द्वारा कहा जाता है। यहाँ गुणवान् तो अशुद्ध द्रव्य है और मनुष्य व्यंजन पर्याय है। कथंचित् अभेद रूप से दोनों को यह नय जान लेता है। इन दो नयों के