________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 141 स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोप्यनेकधा / प्रतीतिबाधितो बोध्यो निःशेषोप्यनया दिशा५७ द्रव्यत्वं द्रव्यात्मकमेव ततोर्थांतरभूतानां द्रव्याणामभावादित्यपरसंग्रहाभासः, प्रतीतिविरोधात् / तथा पर्यायत्वं पर्यायात्मकमेव ततोर्थांतरभूतपर्यायासत्त्वादिति तत्त्वं तत एव / तथा जीवत्वं जीवात्मकमेव, पुद्गलत्वं पुद्गलात्मकमेव, धर्मत्वं धर्मात्मकमेव, अधर्मत्वं अधर्मात्मकमेव, आकाशत्वं आकाशात्मकमेव, कालत्वं कालात्मकमेवेति चापरसंग्रहाभासाः। जीवत्वादिसामान्यानां स्वव्यक्तिभ्यो भेदेन कथंचित्प्रतीतेरन्यथा तदन्यतरलोपे सर्वलोपानुषंगात्। तथा क्रमभाविपर्यायत्वं क्रमभाविपर्यायविशेषात्मकमेव, सहभाविगुणत्वं तद्विशेषात्मकमेवेति वापरसंग्रहाभासौ प्रतीतिप्रतिघातादेव / एवमपरापरद्रव्यपर्यायभेदसामान्यानि स्वव्यक्त्यात्मकान्येवेत्यभिप्रायाः सर्वेप्यपरसंग्रहाभासाः प्रमाणबाधितत्वादेव बोद्धव्याः, प्रतीत्यविरुद्धस्यैवापरसंग्रहप्रपंचस्यावस्थितत्वात्॥ उस अपर संग्रह का आभास भी अनेक प्रकार का है। अपनी व्यक्ति और जाति के सर्वथा एक आत्मकपने के एकान्त की प्रतीतियों से बाधित होने से अपर संग्रहाभास समझना चाहिए। इस ही संकेत से सम्पूर्ण भी अपर संग्रहाभास समझ लेना। अर्थात् घट सामान्य और घट विशेषों का सर्वथा भेद या अभेद मानने का आग्रह करना अपर संग्रहाभास है॥५७।। आचार्य कहते हैं कि जो कोई सांख्यमत अनुयायी द्रव्यत्व सामान्य को द्रव्य व्यक्तियों के साथ तदात्मक ही मानते हैं क्योंकि उस द्रव्यत्व से भिन्न द्रव्यों का अभाव है। यह उनका मानना प्रतीतियों से विरोध हो जाने के कारण अपरसंग्रहाभास है। उसी प्रकार पर्यायत्व सामान्य भी पर्याय आत्मक ही है। उस पर्याय सामान्य से सर्वथा अर्थान्तरभूत हो रहे पर्यायों का असद्भाव है। इस प्रकार का कथन भी प्रतीति विरोध हो जाने से अपर संग्रहाभास है। तथा जीवत्व अनेक जीवों का तदात्मक धर्म है। पदलत्व सामा पुद्गल व्यक्ति स्वरूप ही है। धर्म द्रव्यपना धर्मद्रव्य स्वरूप ही है। अधर्मत्व अधर्मद्रव्य स्वरूप ही है। आकाशत्व धर्म आकाशस्वरूप ही है। कालत्व सामान्यकाल परमाणुओं स्वरूप ही है। इस प्रकार जाति और व्यक्तियों के सर्वथा अभेद एकान्त को कहने वाले सब अपरसंग्रहाभास हैं। क्योंकि जीवत्व, पुद्गलत्व आदि सामान्यों की अपने विशेष व्यक्तियों से कथंचित् भेद रूप से प्रतीति होती है। ___अन्यथा यानी कथंचित् भेद नहीं मान कर दूसरे अशक्य विवेचनत्व आदि प्रकारों से उनका सर्वथा अभेद मानोगे तो उन दोनों में से एक का लोप हो जाने पर बचे हुए शेष का भी लोप होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् - विशेष का सामान्य के साथ अभेद मानने पर सामान्य में विशेष लीन हो जायेगा। एवं विशेषों का प्रलय हो जाने पर सामान्य कुछ भी नहीं रह सकता है। . द्रव्य व्यक्तियों और द्रव्य जातियों का अभेद कह कर अब पर्यायों का अपनी जाति के साथ अभेद मानने को नयाभास कहते हैं। जो कोई प्रतिवादी क्रमभावी पर्यायत्व सामान्य को क्रम-क्रम से होने वाले विशेष पर्यायों स्वरूप ही कह रहा है, अथवा सहभावी पर्याय गुणत्व को उस गुणत्व सामान्य के विशेष हो रहे अनेक गुण आत्मक ही इष्ट करना है। इन दोनों का भी प्रतीतियों द्वारा प्रतिघात हो जाने से ही अपर संग्रहाभास समझ लेने चाहिए। इसी प्रकार और भी आगे के उत्तरोत्तर द्रव्य या पर्यायों के भेद-प्रभेद रूप सामान्य द्रव्यत्व, (पृथिवीत्व, घटत्व आदि) भी अपनी-अपनी व्यक्तियाँ द्रव्य और पर्यायस्वरूप ही हैं। इस अभिप्राय को सभी प्रमाणों से बाधित होने से अपर संग्रह के आभास समझ लेने चाहिए। क्योंकि प्रतीतियों से अविरुद्ध पदार्थों को विशेष करने वाले नयों को अपरसंग्रह नय के प्रपंच की व्यवस्था की जा चुकी ह।