________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 140 शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मानं संग्रहः परः। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह // 51 // निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः / तदाभासः समाख्यातः सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् // 52 // अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्यः सर्वथा बहुधानकं / महासामान्यमित्युक्तिः केषांचिद्दुर्नयस्तथा // 53 // शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोन्यत्र दर्शितम् // 54 // द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापरः। पर्यायत्वं च निःशेषपर्यायव्यापिसंग्रहः // 55 // तथैवावांतरान् भेदान् संगृौकत्वतो बहुः। वर्ततेयं नयः सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृतेः॥५६॥ और समीचीनपना इन दो अर्थों में रहने वाला सम शब्द यहाँ ग्रहण किया जाता है। अतः उस संग्रह नय का लक्षण संग्रह शब्द की निरुक्ति से ही विचारा जाता है। परसंग्रहनय तो सत्तामात्र शुद्ध द्रव्य को ग्रहण करता है और सत् है, इस प्रकार सबको एकपने से ग्रहण करने वाला यह संग्रह नय यहाँ सर्वदा सम्पूर्ण विशेष पदार्थों में उदासीनता को धारण करता है। अर्थात् “सत्-सत्" इस प्रकार कहने पर तीनों काल के विवक्षित, अविवक्षित सभी जीव, अजीव के भेद प्रभेदों का एकत्व से संग्रह हो जाता है॥४९-५०-५१॥ जो नय सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण कर केवल सत्ता के अद्वैत को कहने में तत्पर है, वह सज्जन विद्वानों के द्वारा परसंग्रहाभास कहा जाता है। कारण कि अकेले सत् या ब्रह्म को कहने पर प्रत्यक्षप्रमाण और अनुमानप्रमाण से बाधा उपस्थित होती है; जिसको कि हम पूर्व में कह चुके हैं॥५२॥ सांख्यों द्वारा माना गया प्रधान तत्त्व तो अहंकार, तन्मात्रा आदि तेईस प्रकार की विशेष व्यक्तियों से या विशेष व्यक्तों से सर्वथा अभिन्न होता हुआ महासामान्य स्वरूप है। 'त्रिगुणमविवेत्यादि' (सांख्यतत्त्व कौमुदी) इस प्रकार किन्हीं कापिलों का मानना दुर्नय है अर्थात् परसंग्रहाभास है। तथा अन्य शब्दाद्वैतवादियों का अकेले शब्द ब्रह्म को ही स्वीकार करना और ब्रह्माद्वैतवादियों का विशेषों से रहित केवल अद्वय पुरुष तत्त्व को स्वीकार करना तथा यौगाचार या वैभाषिक बौद्धों का शुद्ध संवेदनाद्वैत का पक्ष पकड़े रहना, ये सब कुनय व पर-संग्रहाभास हैं। इसको भी हम पूर्व में अन्य स्थानों में बहुत बार दिखला चुके हैं। विशेषों से रहित सामान्य कुछ भी पदार्थ नहीं है // 53-54 // . परसंग्रहनय को कहकर अब अपरसंग्रह नय का वर्णन करते हैं। परमसत्ता रूप से सम्पूर्ण भावों के एकपन का अभिप्राय रखने वाले परसंग्रह द्वारा गृहीत अंशों के विशेष अंशों को जानने वाला अपर-संग्रह नय है। सत् के व्याप्य द्रव्य और पर्याय हैं। सम्पूर्ण द्रव्यों में व्यापने वाले द्रव्यत्व को अपरसंग्रह स्वकीय अभिप्राय द्वारा जान लेता है, और दूसरा अपर संग्रह तो सम्पूर्ण पर्यायों में व्यापने वाले पर्यायत्व को जान लेता है। उसी प्रकार और इनके भी व्याप्य हो रहे बहुत से अवान्तर भेदों का एकपने से संग्रह कर यह नय जानता है। अपने प्रतिकूल पक्ष का निराकरण नहीं करने से यह समीचीन नय है और अपने अवान्तर सत्तावाले विषयों के प्रतिपक्षी महासत्ता वाले या तद्व्याप्य व्याप्य अन्य व्यक्तिविशेषों का निषेध कर देने वाला कुनय कहा जाता है अर्थात् जैसे सम्पूर्ण जीव द्रव्यों का एकपने से संग्रह करना अथवा कालत्रयवती पर्यायों में द्रवण करने वाले अजीव के पुद्गल, धर्म आदि भेदों का संग्रह कर लेना तथा पर्यायों के विशेष भेद सम्पूर्ण घटों का या सम्पूर्ण पटों का एकपने से संग्रह करना अपर संग्रह नय है। इस प्रकार व्यवहार नय से पहले अनेक विषय व्यापि सामान्यों को जानता हुआ यह अपर संग्रहनय बहुत प्रकार का है॥५५. 56 //