________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 146 क्षणध्वंसिन एव बहिरंतश्च भावाः, क्षणद्वयस्थाष्णुत्वेपि तेषां सर्वदा नाशानुपपत्तेः कौटस्थ्यप्रसंगात् क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधादवस्तुतापत्तेः। इति यो द्रव्यं निराकरोति सर्वथा सोत्रर्जुसूत्राभासो हि मंतव्यः प्रतीत्यतिक्रमात् / प्रत्यभिज्ञानप्रतीतिर्हि बहिरंतश्चैकं द्रव्यं पूर्वोत्तरपरिणामवर्ति साधयंती बाधविधुरा प्रसाधितैव पुरस्तात् / तस्मिन् सति प्रतिक्षणविनाशस्येष्टत्वान्न विनाशानुपपत्तिर्न भावानां कौटस्थ्यापत्तिः यत: सर्वथार्थक्रियाविरोधात् अवस्तुता स्यात् / योपि च मन्यते परमार्थतः कार्यकारणभावस्याभावान्न ग्राह्यग्राहकभावो बौद्धों का मंतव्य है कि सम्पूर्ण बहिरंग अन्तरंग पदार्थ एक क्षण स्थित रहकर दूसरे ही क्षण नष्ट हो जाते हैं। यदि पदार्थों को एक क्षण से अधिक दो क्षण भी स्थितिशील मान लिया जायेगा तो सदा उन पदार्थों का नाश होना संभव नहीं होगा (यानी कभी उनका नाश नहीं हो सकेगा)। अर्थात् जो पदार्थ दो क्षण ठहर जायेगा वह तीसरे आदि क्षणों में भी नष्ट नहीं होगा। ऐसी दशा हो जाने से पदार्थों के कूटस्थनित्यत्व का प्रसंग आयेगा। तथा कूटस्थ पक्ष अनुसार क्रम और अक्रम से अर्थक्रिया होने का विरोध होने से अवस्तुपन का प्रसंग आ जायेगा। सभी सद्भूत पदार्थ एक क्षण तक ही जीवित हैं दूसरे क्षण में उनका समग्रता में नाश हो जाता है। कूटस्थ पदार्थ में अर्थक्रिया नहीं होने से वस्तुत्व की व्यवस्था नहीं है। अतः पहिले पीछे कुछ भी अन्वय नहीं रखते हुए सभी पदार्थ क्षणिक हैं। इस प्रकार कहने वाला सौत्रान्तिक बौद्ध त्रिकालान्वयी द्रव्य का खण्डन कर रहा है। आचार्य कहते हैं कि उसका वह ज्ञान सभी प्रकारों से ऋजुसूत्र. नयाभास मानना चाहिए, क्योंकि बौद्धों के मतानुसार पदार्थों को क्षणिक मानने पर प्रामाणिक प्रतीतियों का अतिक्रमण हो जाता है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान प्रमाण स्वरूप प्रतीति ही बाधक प्रमाणों से रहित होती हुई अपने पूर्वोत्तर काल की पर्यायों में स्थित बहिरंग अन्तरंग एक द्रव्य को सिद्ध करने वाले पूर्व के प्रकरणों में हमने सिद्ध कर दी भावार्थ - स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में मिट्टी के समान अनेक बहिर्भूत पर्यायों में एक पुद्गल द्रव्यपना व्यवस्थित है, तथा आगे पीछे कालों में होने वाले अनेक ज्ञान सुख इच्छा आदि पर्यायों में एक अन्तरंग आत्मा द्रव्य स्थित है। इस नित्य द्रव्य को जानने वाला बाधारहित प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कहा जा चुका है। द्रव्यार्थिकनय अनुसार उस अन्वित नित्य द्रव्य को स्वीकार करने पर पर्यायार्थिक नय से भावों का प्रतिक्षण विनाश होना अभीष्ट हो सकता है। अतः विनाश की असिद्धि नहीं है। विनाश के न मान लेने पर भी पदार्थों के सर्वथा कूटस्थपन का प्रसंग नहीं आता है, जिससे कि कूटस्थ पदार्थ में सभी प्रकारों से अर्थक्रिया हो जाने का विरोध हो जाने से अवस्तुपना आ सकता है (अत: द्रव्य का खण्डन नहीं करता हुआ क्षणिक पर्यायों को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय है, और सर्वथा निरन्वय क्षणिक परिणामों को जानने वाला ऋजुसूत्र नयाभास है)। जो भी यौगाचार बौद्ध मानते हैं कि परमार्थ से कार्य-कारण भाव का अभाव होने से ग्राह्यग्राहक भाव भी नहीं बनता और न वाच्यवाचक भाव भी माना जा सकता है, जिससे कि बहिरंग अर्थों की सिद्धि हो सके।