________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 145 कार्यकारणता चेति ग्राह्यग्राहकतापि वा। वाच्यवाचकता चेति क्वार्थसाधनदूषणं // 3 // लोकसंवृत्तिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः / क्वैवं सिद्ध्येद्यदाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना // 64 // सामानाधिकरण्यं क्व विशेषणविशेष्यता / साध्यसाधनभावो वा क्वाधाराधेयतापि च / 65 / / संयोगो विप्रयोगो वा क्रियाकारकसंस्थितिः। सादृश्यं वैसदृश्यं वा स्वसंतानेतरस्थितिः॥६६॥ समुदायः क्व च प्रेत्यभावादि द्रव्यनिह्नवे। बंधमोक्षव्यवस्था वा सर्वथेष्टाऽप्रसिद्धितः // 67 // द्रव्य की विवक्षा नहीं करने से उसका गौणपना है। अर्थात् द्रव्य की भूत पर्यायें तो नष्ट हो चुकी हैं, और भविष्य पर्यायें न जाने कब-कब उत्पन्न होंगी। अत: यह नय वर्तमान काल की पर्याय को ही विषय करता है। त्रिकालान्वयी द्रव्य की विवक्षा नहीं करता है। यद्यपि एक क्षण के पर्याय से ही पढ़ना, पचना, आदि अनेक लौकिक कार्य सिद्ध नहीं हो सकते हैं, किन्तु यहाँ केवल इस नय का विषय निरूपण कर दिया है। लोक व्यवहार तो सम्पूर्ण नयों के समुदाय से साधने योग्य है॥६१॥ . ___ जो बौद्धों द्वारा माना गया ज्ञान वर्तमान पर्याय मात्र को ही ग्रहण करता है और बहिरंग अन्तरंग द्रव्यों का सभी प्रकार से खण्डन करता है वह उस ऋजुसूत्र नय का आभास (कुनय) मानना चाहिए। क्योंकि बौद्धों के अभिप्राय अनुसार मानने पर प्रमाण प्रसिद्ध प्रतीतियों का अपलाप हो जाता है। अर्थात् - सभी पर्यायें द्रव्य से अन्वित हो रही हैं। बिना द्रव्य के परिणाम होना असम्भव है। ऋजुसूत्र भले ही केवल पर्यायों को ही जानता है, किन्तु वह द्रव्य का खण्डन नहीं कर सकता है।६२॥ अन्वित द्रव्यों को नहीं मानने पर बौद्धों के यहाँ कार्य - कारण भाव अथवा ग्राह्यग्राहक भाव और वाच्यवाचक भाव भी कहाँ बन सकते हैं। ऐसी दशा में स्वकीय इष्ट अर्थ का साधन और परपक्ष का दूषण ये विचार कैसे बन सकेंगे? पदार्थों को कालान्तर स्थायी मानने पर ही कार्य-कारण भाव बनता है॥६३॥ इस प्रकार द्रव्य का अपह्नव करने वाले क्षणिक पक्ष में लौकिक व्यवहारसत्य और परमार्थ रूप से सत्य ये कैसे सिद्ध हो सकेंगे? जिसका कि आश्रय करके बौद्धों के यहाँ बुद्धों का धर्म उपदेश देना बन सके। अर्थात् - वास्तविक कार्य-कारण भाव के बिना व्यवहारसत्य और परमार्थ सत्य का निर्णय नहीं हो सकता है। वाच्यवाचक भाव के बिना सुगत का धर्मोपदेश भी सिद्ध नहीं हो सकता है॥६४।। त्रिकाल में अन्वित रहने वाले द्रव्य को माने बिना सामानाधिकरण्य, विशेषों में समानाधिकरणपना विशेषण-विशेष्यपना, साध्य-साधन भाव अथवा आधार-आधेय भाव कैसे घटित हो पाते हैं? साध्यसाधन भाव के लिए व्याप्तिग्रहण, पक्षवृत्तित्व ज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिस्मरण, इनकी आवश्यकता हैं, क्षणिक में ये कार्य घटित नहीं होते हैं। अवयवी, साधारण, कालान्तर स्थायी, पदार्थों में आधार-आधेय भाव सम्भवता है, क्षणिक, परमाणु, विशेषों में नहीं॥६५॥ नित्य परिणामी द्रव्य को स्वीकार नहीं करने पर बौद्धों के यहाँ संयोग अथवा विभाग तथा क्रियाकारक की व्यवस्था और सादृश्य, वैसादृश्य अथवा स्वसंतान पर संतानों की प्रतिष्ठा एवं समुदाय और मरकर ' जन्म लेना स्वरूप प्रेत्यभाव या साधर्म्य आदि कहाँ बन सकेंगे? अथवा बन्ध, मोक्ष की व्यवस्था कैसे कहाँ * होगी? क्योंकि सभी प्रकारों से इष्ट पदार्थों की तम्हारे यहाँ प्रसिद्धि नहीं हो रही है।६६-६७॥