________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 147 वाच्यवाचकभावो वा यतो बहिरर्थः सिद्ध्येत्। विज्ञानमात्रं तु सर्वमिदं त्रैधातुकमिति, सोपि चर्जुसूत्राभासः स्वपरपक्षसाधनदूषणाभावप्रसंगात्। लोकसंवृत्त्या स्वपक्षस्य साधनात् परपक्षस्य बाधनात् दूषणाददोष इति चेन्न, लोकसंवृत्तिसत्यस्य परमार्थसत्यस्य च प्रमाणतोसिद्धेः तदाश्रयणेनापि बुद्धानामधर्मदेशनादूषणद्वारेण धर्मदेशनानुपपत्तेः। एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं, क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासतामायातीत्युक्तं वेदितव्यं / किं च, सामानाधिकरण्याभावो द्रव्यस्योभयाधारभूतस्य निह्नवात्। तथा च कुतः शब्दादेर्विशेष्यता क्षणिकत्वकृतकत्वादेः साध्यसाधनधर्मकलापस्य च तद्विशेषणता सिद्ध्येत्? तदसिद्धौ च न साध्यसाधनभाव: यह सम्पूर्ण जगत् तो केवल विज्ञानस्वरूप है। कार्य-कारण भाव या ग्राह्य-ग्राहक भाव अथवा वाच्य-वाचकभाव इन तीनों धातुओं का समुदाय विज्ञानमय है। शुद्ध विज्ञान के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाले योगाचार्य का वह विचार भी ऋजुसूत्र नयाभास है। क्योंकि कार्यकारणभाव आदि को वास्तविक माने बिना स्वपक्ष के साधन और परपक्ष के दूषण देने के अभाव का प्रसंग आता है। अर्थात् ज्ञेय-ज्ञायक और वाच्य-वाचक मानने पर स्वपक्षसिद्धि और परपक्षदूषण को वचन द्वारा समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं।। कल्पित लोकव्यवहार से स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का बाधन हो जाने से दूषण दे दिया जाता है। अत: कोई दोष नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादियों को ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि लौकिक व्यवहार से सत्य और परमार्थ रूप से सत्य पदार्थ की तम्हारे यहाँ प्रमाणों से सिद्धि नहीं हो सकी है। अत: उस लोक व्यवहार का आश्रय करने से भी बौद्धों का अधर्म उपदेश के दूषण द्वारा धर्म उपदेश देना नहीं बन सकता है। अर्थात् - धर्म का उपदेश तभी सिद्ध हो पाता है,जबकि अधर्म के उपदेश में दूषण उठाये जा सकें। यह सब वाच्य वाचक भाव मानने पर और लोक व्यवहार को सत्य मानने पर सध सकता है, अन्यथा नहीं। उक्त कथन से बौद्धों का चित्राद्वैत अथवा संवेदनाद्वैत को क्षणिक मानना यह भी ऋजुसूत्राभासपने को प्राप्त हो जाता है, यह कह दिया गया समझ लेना चाहिए। अर्थात् ज्ञान के नीलाकार, पीताकार आदि का पृथक् विवेचन नहीं किया जा सकता है। अत: स्वयं चित्रता को धारने वाला यह चित्राद्वैतज्ञान भी कुनय है। ग्राह्य, ग्राहक और संवित्ति इन तीनों विषयों से रहित शुद्ध सम्वेदन अद्वैत भी ऋजुसूत्राभास है। किंच - क्षणिकवादी बौद्धों के यहाँ दूसरे ये दोष भी आते हैं कि दो परिणामों के आधारभूत समानद्रव्य का लोप होने से शब्द आदि का विशेष्यपना सिद्ध कैसे हो सकेगा? क्षणिक परमाणुरूप पक्ष में समान अधिकरणपना नहीं बनता है। तथा क्षणिकत्व आदि साध्य और कृतकत्व आदि साधनभूत धर्मों के समुदाय को उन शब्द आदि पक्ष का विशेषणपना सिद्ध नहीं हो सकेगा, और जब विशेष्य - विशेषण भाव सिद्ध नहीं हो सकता तो क्षणिकत्व और कृतकत्व में साध्य, हेतुपना नहीं बन सकेगा। अत: हेतु के धर्म माने गये पक्षवृत्तित्व और सपक्षसत्त्व नहीं सिद्ध हो पाते हैं। अर्थात् - शब्द (पक्ष) क्षणिक है (साध्य) कृतक होने से (हेतु) यहाँ अनुमान प्रयोग में पक्ष विशेष्य होता है। साध्य और हेतु उसमें विशेषण होकर रहते हैं। हेतु में पक्षवृत्तित्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्तत्व ये तीन धर्म रहते हैं। तथा पक्ष में रहने की अपेक्षा हेतु और साध्य का सामानाधिकरण्य है। अतः हेतु में ठहरने की अपेक्षा पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व विपक्षव्यावृत्ति इन तीनों धर्मों में समान अधिकरणपना है। कालान्तर स्थायी सामान्य पदार्थ या द्रव्य के मानने पर ही