________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 97 नियोगस्तस्य निष्पादनार्थत्वात् निष्पन्नस्य निष्पादनायोगात् पुरुषादिवत्। द्वितीये पक्षेपि नासौ नियोग: फलस्य भावत्वेन नियोगत्वाघटनात् तदा तस्यासंनिधानाच्च। तस्य वाक्यार्थत्वे निरालंबनशब्दवादाश्रयणात्कुतः प्रभाकरमतसिद्धिः? नि:स्वभावत्वे नियोगस्यायमेव दोषः। किं च, सन् वा नियोगः स्यादसन् वा? प्रथमपक्षे विधिवाद एव द्वितीये निरालंबनवाद इति न नियोगो वाक्यार्थः संभवति; परस्य विचारासंभवात् / तथा भावना वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्ययस्तथा व्यवस्थापयितुमशक्तेः। भावना हि द्विविधा शब्दभावना अर्थभावना चेति “शब्दात्मभावनामाहुरन्यामेव लिङादयः / इयं त्वन्यैव सर्वार्था सर्वाख्यातेषु विद्यते” इति वचनात् / अत्र वर्तमान में सम्भावना मानी जायेगी तो वाक्य का अर्थ नियोग नहीं हुआ, क्योंकि वह नियोग तो कर्त्तव्यकार्यों को भविष्य में बनाने के लिए हुआ करता है। जो किया जाकर बन चुका है, उसका पुनः बनाना नहीं होता 층 जैसे कि अनादिकाल के बने हुए नित्यद्रव्य, आत्मा, आकाश आदि नहीं बनाये जाते हैं। द्वितीय पक्ष के ग्रहण करने पर भी वह नियोग स्वर्ग आदि फलस्वरूप नहीं घटित हो सकता है। क्योंकि उस वाक्य उच्चारण के समय उस स्वर्गफल आदि का सन्निधान नहीं है। अत: उस अविद्यमान फल को यदि उस वाक्य का फल मानोगे तो निरालम्बन शब्द के पक्षपरिग्रह का आश्रय करलेने से बौद्ध मत का प्रसंग आयेगा तथा प्रभाकर के मत की सिद्धि कैसे हो सकेगी? तृतीय पक्ष के अनुसार नियोग को सभी स्वभावों से रहित माना जायेगा तो भी यही दोष लागू रहेगा। अर्थात् स्वभावों से रहित नियोग खर विषाण के समान असत् है। इस प्रकार आठों पक्षों में नियोग की व्यवस्था नहीं बन सकती। वह नियोग सत् रूप है या असत् रूप है? प्रथमपक्ष लेने पर ब्रह्माद्वैतवादियों के विधिवाद का प्रसंग आता है, क्योंकि सत्, ब्रह्म, प्रतिभास, विधि इनका एक ही अर्थ माना गया है। यदि द्वितीय पक्ष लेते हैं तो नियोग असत् पदार्थ माना जायेगा और तब निरालम्बनवाद का आश्रय करना पड़ेगा अर्थात् असत् नियोग कभी वाक्य का अर्थ नहीं हो सकता है। . इस प्रकार परस्पर विचारों की असम्भवता होने से विधिलिङन्तवाक्यों का अर्थ नियोग करना सम्भव नहीं है। जो वाक्य का अर्थ नियोग कर रहा है, उसके आहार्य कुश्रुतज्ञान है। "वाक्य का अर्थ भावना ही है" इस प्रकार का एकान्त भी विपर्ययज्ञान है क्योंकि इस प्रकार वाक्य के वाच्य अर्थ भावना की व्यवस्था कराने के लिए भाट्टों का सामर्थ्य नहीं है। भाट्टों के यहाँ शब्द भावना और अर्थभावना के भेद से भावना दो प्रकार की मानी गयी है। उनके ग्रन्थों में उक्ति है कि लिङ्, लोट्, तव्य, ये प्रत्यय के अर्थ हो रही भावना से भिन्न ही शब्द भावना और अर्थ भावना को कह रहे हैं। अर्थात् सम्पूर्ण अर्थों में स्थित करोत्यर्थ रूप अर्थभावना तो शब्दभावना से भिन्न ही हैं जो कि गच्छति, पचति, यजति इत्यादि सम्पूर्ण तिङन्त आख्यातों में विद्यमान है। ऐसी अर्थ भावना शब्दभावना से भिन्न होनी ही चाहिए। इन दो भावनाओं में शब्द भावना तो शब्द का व्यापार स्वरूप पड़ती है। क्योंकि शब्द के द्वारा पुरुष का व्यापार भावित किया जाता है और पुरुष व्यापार के द्वारा यज् पच् आदि धातुओं का अर्थ भावनाग्रस्त