________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 130 नामादयोपि चत्वारस्तन्मूलं नेत्यतो गतं / द्रव्यक्षेत्रादयश्शेषां द्रव्यपर्यायगत्वतः // 13 / / भवान्विता न पंचैते स्कंधा वा परिकीर्तिताः / रूपादयो त एवेह तेपि हि द्रव्यपर्ययौ // 14 // तथा द्रव्यगुणादीनां षोढात्वं न व्यवस्थितं / षट् स्युर्मूलनया येन द्रव्यपर्यायग्राहिते // 15 // ये प्रमाणादयो भावा प्रधानादय एव वा। ते नैगमादिभेदानामर्था नापरनीतयः // 16 // इस उक्त कथन से यह भी ज्ञात हो चुका है कि नाम आदि भी चार उन नयों के मूल नहीं हैं। और द्रव्य क्षेत्र आदि विषय भी उन नयों के उत्पादक मूल कारण नहीं हैं। अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव इन चार विषयों को मूल कारण मानकर नामार्थिक, स्थापनार्थिक, द्रव्यार्थिक और भावार्थिक ये चार मूल नय नहीं हो सकते हैं। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन विषयों को मूल कारण मानकर द्रव्यार्थिक क्षेत्रार्थिक, कालार्थिक, भावार्थिक ये चार मूल नय नहीं हो सकते हैं। क्योंकि नाम आदि चारों और द्रव्य, क्षेत्र, आदि चारों द्रव्य और पर्यायों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। अत: मूल नय का विषय द्रव्य और पर्याय दो ही हैं, अधिक नहीं // 13 // द्रव्य, क्षेत्र आदि चार के साथ भव को जोड़ देने पर पाँच भी मूल नेय पदार्थ नहीं हैं। अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल भव, भाव इन पाँच को विषय करने वाले मूल नय पाँच नहीं हो सकते हैं। अथवा बौद्धों के द्वारा रूप आदि पाँच स्कन्धों का अपने ग्रन्थों में चारों ओर से निरूपण किया गया है। वे भी मूल नेय विषय नहीं हैं। अर्थात् रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध, संज्ञास्कन्ध और संस्कारस्कन्ध इन पाँच विषयों को मानकर पाँच मूलनय नहीं हैं। क्योंकि वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव तथा रूपस्कन्ध आदि पाँच भी नियम से द्रव्य और पर्यायस्वरूप ही हैं, पाँचों का दो में ही अन्तर्भाव हो जाता है। अत: दो ही पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक मूल नय हैं, अधिक नहीं // 14 // ___ उसी प्रकार वैशेषिकों के यहाँ माने गये द्रव्य, गुण आदिक भाव पदार्थों का छह प्रकारपना भी स्वतंत्र तत्त्वपने से व्यवस्थित नहीं हो सकता है; जिस कारण से कि उन छह मूल कारण नेय विषयों को जानने वाले मूल नय छह हो जावें। वे द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छहों भाव नियम से द्रव्य और पर्यायों में ही अन्तर्गत हो जाते हैं। अर्थात् द्रव्य आदि छहों भाव द्रव्य, पर्याय - इन दो स्वरूप ही हैं। अत: दो ही मूल नय हैं, अतिरिक्त नहीं है॥१५॥ ___ जो नैयायिकों के द्वारा माने गये प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि सोलह भाव पदार्थ तत्त्वभेद रूप से माने गये हैं, अथवा प्रधान आदि पच्चीस भाव तत्त्व हैं, इस प्रकार सांख्यों ने मूल पदार्थ स्वीकार किये हैं, वे भी नैगम आदि भेद रूप विशेष नयों के विषय हो सकते हैं। जैन सिद्धांत में निर्णय किये गये द्रव्य और पर्याय से अन्य तत्त्वों की व्यवस्था करने वाली कोई दूसरी नीति नहीं है। अर्थात् - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान, ये नैयायिकों के सोलह पदार्थ मूल पदार्थ नहीं बन पाते हैं, अपितु द्रव्य और पर्यायों के भेद-प्रभेद हैं। और प्रकृति, महान्, अहंकार, शब्दतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा,