________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 120 पूर्वं सम्यगवबोधस्वरूपविधिरूपमुखेन निर्णयं विधाय विपक्षविक्षेपमुखेनापि तं विधातुमुद्यतैरनेकधा विपर्ययज्ञानमुदितं वादिनोभयं कर्तव्यं स्वपरपक्षसाधनदूषणमिति न्यायानुसरणात्, स्वविधिसामर्थ्यात् प्रतिषेधस्य सिद्धेस्तत्सामर्थ्याद्वा स्वपक्षविधिसिद्धे!भयवचनमर्थवदिति प्रवादस्यावस्थापितुमशक्ते :, सर्वत्र सामर्थ्यसिद्धस्यावचनप्रसंगात् / स्वेष्टव्याघातस्यानुषंगात् / क्वचित्सामर्थ्यसिद्धस्यापि वचने स्याद्वादन्यायस्यैव सिद्धेः सर्वं शुद्धम्॥ ___ इति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थमाह्निकम्॥ पहिले सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का विधिस्वरूप की मुख्यता से निर्णय कर पुन: सम्यग्ज्ञान के विपक्षी मिथ्याज्ञानों के निराकरण की मुख्यता से भी उस निर्णय का विधान करने के लिये उद्यमी सूत्रकार ने अनेक प्रकार के विपर्यय ज्ञान का कथन किया है। यद्यपि सम्यग्ज्ञानों की विधि से ही मिथ्याज्ञानों का अनायास निवारण हो जाता है। अथवा मिथ्याज्ञानों का अकेले निवारण कर देने से ही सम्यग्ज्ञानों की विधि हो जाती है। फिर भी वादी को दोनों कार्य करने चाहिए। अपने पक्ष का साधन करना, दूसरों के प्रतिपक्ष में दूषण उठाना इस नीति का अनुसरण करके ग्रन्थकार ने दोनों कार्य किये हैं। अथवा श्री उमास्वामी महाराज ने विधिमुख और निषेधमुख दोनों से सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानों का प्रतिपादन किया है। अत: सिद्ध है कि समीचीनवादी विद्वान् को स्वपक्षसाधन और परपक्ष में दूषण इन दोनों का कथन करना चाहिए। सौगत कहता है कि अपने पक्ष की विधि कर देने की सामर्थ्य से ही प्रतिपक्ष के निषेध की सिद्धि हो जाती है। अथवा उस परपक्ष के निषेध की सिद्धि हो जाने से ही अर्थापत्ति के बल से स्वपक्ष के सामर्थ्य की सिद्धि हो जाती है। अत: दोनों का कथन करना व्यर्थ है। जैनाचार्य कहते हैं कि उक्त प्रकार के प्रवाद की व्यवस्था करना शक्य नहीं है। क्योंकि ऐसा कहने पर तो सभी स्थलों पर बिना कहे सामर्थ्य से सिद्ध पदार्थ के कथन नहीं करने का प्रसंग आएगा। ऐसी दशा में अपने इष्ट सिद्धान्त के व्याघात हो जाने का भी प्रसंग आएगा। अर्थात् बौद्धों ने “यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकं"- इस व्याप्ति अनुसार समर्थन उपनय आदि का पुनरपि निरूपण किया है। किसी व्यक्ति की विद्वत्ता का निषेध करने पर भी मूर्खता का विधान नहीं हो जाता है। अथवा हेतु की पक्ष में विधि कर देने से ही विपक्ष में निषेध नहीं हो जाता है। सामर्थ्य से सिद्ध पदार्थ का यदि शब्द द्वारा निरूपण करना कहीं-कहीं इष्ट कर लेने पर तो स्याद्वाद न्याय की ही सिद्धि होगी। अत: अनेकान्त मत अनुसार सम्पूर्ण व्यवस्था निर्दोष होकर शुद्ध बन जाती है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिक अलंकार ग्रन्थ में प्रथम अध्याय का चतुर्थ आह्निक समाप्त हुआ। सम्यग्दर्शन या जीव आदि पदार्थों का अधिगम कराने वाले प्रमाणों का वर्णन हो चुकाहै। उस प्रमाण के पश्चात् कहे गये नयों का निरूपण करना अब अवसर प्राप्त है। अत: आचार्य नयों की भेदगणना कहने वाले सूत्र को कहते हैं -