________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 100 विधिरूपत्वप्रसंगात्। तदुक्तं / “सन्मात्रं भावलिंग स्यादसंपृक्तं तु कारकैः। धात्वर्थः केवल: शुद्धो भाव इत्यभिधीयते // " इति विधिवाद एव, न च प्रत्ययार्थशून्योर्धात्वर्थः कुतश्चिद्विधिवाक्यात् प्रतीयते तदुपाधेरेव तस्य ततः प्रतीतेः। प्रत्ययार्थस्तत्र प्रतिभासमानोपि न प्रधानं कर्मादिवदन्यत्रापि भावनादितिचेत्, तर्हि धात्वर्थोपि प्रधानं मा भूत् प्रत्ययांतरेपि भावात् प्रकृतप्रत्ययापायेपीति समानं पश्यामः। नन्वेवं धात्वर्थस्य सर्वत्र प्रत्ययेष्वनुस्यूतत्वात् प्रधानत्वमिष्यत इति चेत्, प्रत्ययार्थस्य सर्वधात्वर्थेष्वनुगतत्वात् प्रधानत्वमस्तु / प्रत्ययार्थविशेष: उसी प्रकार यज्, पच्, आदि धातुओं का पूजना, पकना आदि अर्थ ही वाक्य का अर्थ है, ऐसा एकान्त करना भी विपर्ययज्ञान है क्योंकि शुद्ध धातु का अर्थ तो भाव स्वरूप है जिसे ब्रह्माद्वैतवादियोंके द्वारा स्वीकृत विधिरूपपने का प्रसंग आता है। विधि को मानने वाले ब्रह्म अद्वैतवादियों ने अपने ग्रन्थों में कहा सत्तामात्र ही भावों का ज्ञापक चिह्न है। वह कर्ता, कर्म,आदि कल्पित कारकों से मिला हआ नहीं है, अन्य अर्थों से और अपने अवान्तर विषयों से रहित जो केवल शुद्ध धातु का अर्थ है; वह भाव कहा जाता है।" अर्थात् धातु और प्रत्ययों से रहित हो रहे अर्थवान शब्द स्वरूप की प्रातिपादिक संज्ञा है, विद्वानों ने उस सत्ता को ही प्रातिपादिक का अर्थ और धातु का अर्थ कहा है। वह प्रसिद्ध सत्ता महान् परब्रह्मस्वरूप है जिसको कि त्व, तल, अण् आदि भाव प्रत्यय कहते रहे हैं। इस प्रकार धातु अर्थ मानने पर तो विधिवाद ही प्राप्त होता है। तथा प्रत्यय के अर्थ संख्या, कारक, इनसे रहित हो रहा वह शुद्ध धातु . अर्थ तो किसी भी विधि वाक्य से प्रतीत नहीं हो रहा है। किन्तु उस प्रत्ययार्थ रूप विशेषण से सहित हो रहे ही उस धातु अर्थ की उस विधि लिङन्त वाक्य से प्रतीति होती है। यद्यपि विधि वाक्य के अर्थ में प्रत्यय का अर्थ प्रतिभासित है फिर भी वह प्रत्यय का अर्थ प्रधान नहीं है। क्योंकि कर्म, करण आदि के समान अन्य स्थानों में भी प्रत्ययार्थ विद्यमान है। इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं कि तब तो धातु का अर्थ भी वाक्य का प्रधान अर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि प्रकरण प्राप्त प्रत्ययों के नहीं होने पर भी वह धातु अर्थ अन्य लुट्, लट्, क्त्वा तृच; आदि दूसरे प्रत्ययों में भी विद्यमान है। इस प्रकार हम जैन धातु अर्थ और प्रत्ययार्थ के विषय में शंका समाधानों को समान ही देखते - पुनः विधिवादी मानते हैं कि इस प्रकार धातु अर्थ तो सम्पूर्ण ही लिङ्, लिट्, लुट्, आदि के प्रत्ययों में ओत-प्रोत होने से उसके प्रधानपना माना जाता है। इस प्रकार कहने पर तो प्रत्यय का अर्थ भी सम्पूर्ण यजि, भू, पचि, कृ, आदि धातुओं के अर्थों में अनुगत होने से प्रधान हो जायेगा, इस पर अद्वैतवादी यदि कहें कि प्रत्ययार्थ विशेष सभी धातु अर्थों में अनुयायी नहीं है। अर्थात् - एक विवक्षित तिप् या तस् का अर्थ तो सभी मिष्, वस्, लुट्, क्ति, तल्, आदि प्रत्यय वाले धातु अर्थों में अन्वित नहीं हो रहा है। इस प्रकार कहने पर तो विशेष धातु अर्थ भी सम्पूर्ण प्रत्ययार्थों में अनुगामी नहीं ही है। अर्थात् यज् धातु का अर्थ पचि गमि धातुओं के साथ लगे हुए प्रत्ययों के अर्थ में ओत-प्रोत होकर अनुगामी नहीं हो रहा है? सामान्यरूप से धातु अर्थ को सम्पूर्ण प्रत्यय अर्थों में अनुयायीपन है। इस कारण धातु अर्थ और प्रत्यायार्थ में अन्यत्र अनुगम करना या नहीं अनुगम करना, इस अपेक्षा से कोई अन्तर सिद्ध नहीं है।