________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 98 शब्दभावना शब्दव्यापारस्तत्र शब्देन पुरुषव्यापारो भाव्यते, पुरुषव्यापारेण धात्वर्थो धात्वर्थेन च फलमिति शब्दभावनावादिनो मतं, तच्च न युज्यते शब्दव्यापारस्य शब्दार्थत्वायोगात् / न ह्यग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इति शब्दात्तद्व्यापार एवं प्रतिभाति स्वयमेकस्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकत्वविरोधात् / प्रतिपादकस्य सिद्धरूपत्वात्प्रतिपाद्यस्य चासिद्धस्य तथात्वसिद्धेरेकस्य च सकृत्प्रसिद्धतररूपत्वासंभवात्तद्विरोधः। शब्दस्वरूपमपि श्रोत्रज्ञानेऽर्पयतीति तस्य प्रतिपादकत्वाविरोधे रूपादयोपि स्वस्य प्रतिपादकाः संतु चक्षुरादिज्ञाने स्वरूपादयोप्यऽर्पणाद्विशेषाभावात् / स्वाभिधेयप्रतिपादकत्वसमर्पणात् / प्रतिपादकः शब्दो न रूपादय इति चायुक्तिकं, शब्दस्य स्वाभिधेयप्रतिपादकत्वसमर्पणे स्वयं प्रसिद्ध परोपदेशानर्थक्यप्रसंगात्। स्वत एव शब्देन ममेदमभिधेयमिति प्रतिपादनात्। पुरुषसंकेतबलात्स्वाभिधेयप्रतिपादनव्यापारमात्मनः शब्दो निवेदयतीति चेत्, किया जाता है। तथा धातु अर्थ के द्वारा फल भावित किया जाता है। यह शब्द भावनावादी भाट्टों का मत है, परन्तु यह युक्त नहीं क्योंकि शब्द के व्यापार को शब्द का अर्थपना घटित नहीं होता है। स्वर्ग' की अभिलाषा करने वाला अनुष्ठाता अग्निष्टोम करके यज्ञ करे।। इस प्रकार के शब्द से उस शब्द का व्यापार ही प्रतिभासित नहीं होता। वही शब्द अपने ही व्यापार का प्रतिभासक कैसे हो सकता है? एक ही शब्द को स्वयं प्रतिपाद्यपन और प्रतिपादकपन का विरोध है। अर्थात् शब्द का ही शरीर स्वयं प्रतिपाद्य और स्वयं उस अपने स्वरूप का प्रतिपादक नहीं होता है। जबकि प्रतिपादक शब्द का स्वरूप उच्चारण काल में प्रथम से ही बना बनाया सिद्ध है। और भविष्य में प्रवर्तने योग्य प्रतिपाद्य विषय का स्वरूप तो तब असिद्ध है। इस प्रकार प्रतिपादकपन प्रतिपाद्यपन की व्यवस्था हो जाने से एक ही पदार्थ के एक ही समय प्रसिद्धपन और उससे भिन्न असिद्धपन स्वरूप का असम्भव होजाने से शब्द में उस प्रतिपाद्य और प्रतिपादकपन का विरोध है। शब्दभावनावादी भाट्ट का कथन है कि शब्द अपने स्वरूप को भी श्रोत्रज्ञान में अर्पण कर देता है। अतः वह शब्द अपने भावना स्वरूप का प्रतिपादक हो जाता है। इसमें कोई विरोध नहीं आता। इस पर आचार्य कहते हैं कि तब तो रूप, रस आदि भी अपने-अपने स्वरूपों के प्रतिपादक हो जायेंगे। क्योंकि, चक्षु, रसना आदि इन्द्रियजन्यज्ञान में विषयता के सम्बन्ध से रूप रस आदि ने भी अपना स्वरूप अर्पण कर दिया है। स्वकीय ज्ञानों में अपने स्वरूप का समर्पण कर देने की अपेक्षा शब्द और रूप, रस आदि में कोई विशेषता नहीं है। भाट्ट-शब्द अपने अभिधेय अर्थ के प्रतिपादकपन को समर्पण कर देता है। अत: शब्द तो अपने स्वरूप का प्रतिपादक है. किन्तु रूप आदि वैसे नहीं हैं। भाट्टों का ऐसा कहना भी युक्तिशून्य है। क्योंकि शब्द का यदि अभिधेय की प्रतिपादकता का समर्पण करना स्वयं प्रसिद्ध होता तो पर के द्वारा उपदेश देना, आदि के व्यर्थपन का प्रसंग आता है। क्योंकि श्रोताओं के प्रति “मेरा यह प्रतिपाद्य अर्थ है" इन शब्दों के द्वारा स्वतः ही कह दिया गया है। “इस शब्द का यह अर्थ है" - इस प्रकार वृद्ध व्यवहार द्वारा शब्दों के वाच्यार्थों को समझाने वाले इशारों को संकेत कहते हैं। शब्द अपने वाच्यार्थ का प्रतिपादन करना रूप अपने व्यापार को पुरुष के द्वारा किये गये संकेत ग्रहण की शक्ति से निवेदन कर देता है। इस प्रकार भाट्टों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि जिस अर्थ में शब्द का संकेत ग्रहण हो चुका है, पुरुष के अभिप्राय में प्राप्त उस अर्थ का प्रतिपादकपना उस शब्द का व्यापार हुआ। इस तरह शब्द का व्यापार तो भावना सिद्ध नहीं हो सकता है। यदि कोई कहे