________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 101 सर्वधात्वर्था ननुयायीतिचेत्, धात्वर्थविशेषोपि सर्वप्रत्ययार्थाननुगाम्येव धात्वर्थसामान्यस्य सर्वप्रत्ययार्थानुयायित्वमिति न विशेषसिद्धिः। तथा विधिर्वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्ययस्तस्य विचार्यमाणस्यायोगात्। तद्धि विधिविषयं वाक्यं गुणभावेन प्रधानभावेन वा विधौ प्रमाणं स्यात्? यदि गुणभावेन तदाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यादेरपि तदस्तु, गुणभावेन विधिविषयत्वस्य भावात् / तत्र भट्टमतानुसारिभिर्भावनाप्राधान्योपगमात् प्राभाकरैश्च नियोगगोचरत्वप्रधानांगीकरणात्। तौ च भावनानियोगौ नासद्विषयौ प्रवर्तेते प्रतीयेते वा सर्वथाप्यसतोः प्रवृत्तौ प्रतीतौ वा शशविषाणादेरपि तदनुषक्तेः सद्रूपतया च तयोर्विधिनांतरीयकत्वसिद्धेः सिद्धं गुणभावेन विधिविषयत्वं वाक्यस्येति न प्रमाणतापत्तेर्विप्रतिपत्तिः येन कर्मकांडस्य पारमार्थिकता न भवेत् / प्रधानभावेन विधिविषयं वेदवाक्यं प्रमाणमिति चायुक्तं, विधे: सत्यत्वे द्वैतावतारात्। तदसत्यत्वे प्राधान्यायोगात्। तथाहि-यो योऽसत्यः स स न प्रधानभावमनुभवति, यथा अत: वाक्य का अर्थ.शुद्ध धातु अर्थ नहीं हो सकता है। तथा सत्तामात्र विधि हि विधिलिंङ् वाक्य का अर्थ है। यह ब्रह्म अद्वैतवादियों का एकान्त भी विपर्ययज्ञान है। क्योंकि उस विधि का विचार करने पर उसकी सिद्धि होने का अयोग है। विधि को विषय करने वाला वाक्य क्या गौणरूप से विधि को जानता हुआ प्रमाण समझा जाता है? अथवा प्रधानरूप से विधि का प्रतिपादन करने वाला प्रमाण विधि में प्रमाण माना जाता है? प्रथमपक्ष के अनुसार यदि गौणरूप से विधि को कह रहा वाक्य प्रमाण बन जायेगा, तब तो ब्रह्मअद्वैतवादियों के यहाँ “स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला पुरुष अग्निहोत्र पूजन द्वारा हवन करे" इत्यादि कर्मकाण्ड के प्रतिपादक वाक्यों को भी प्रमाणता आ जायेगी। क्योंकि कर्मकाण्ड वाक्यों का अर्थ भी गौणरूप से विधि को विषय करता है। उन कर्मकाण्ड वाक्यों में भट्टमत का अनुसरण करने वाले मीमांसकों ने भावना अर्थ की प्रधानता स्वीकार की है। और प्रभाकर मत के अनुसार उन वाक्यों में प्रधानरूप से नियोग को विषय करना अंगीकृत किया है। वे भावना और नियोग दोनों असत् पदार्थ को विषय करते हुए प्रवृत्ति नहीं करते हैं। अथवा स्वकर्त्तव्य द्वारा असत् पदार्थ को प्रतीति कराते हुए नहीं जाने जाते हैं। सभी प्रकारों से असत् हो रहे पदार्थों की प्रवृत्ति अथवा प्रतीति होना माना जायेगा तब तो शशशंग, गजविषाण, आदि की भी उन प्रवृत्तियों या प्रतीतियों के हो जाने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि उन भावना और नियोग को सद्प से विधि के साथ अविनाभावीपना सिद्ध है। अतः प्रसिद्ध हो जाता है कि कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्य गौणरूप से सन्मात्र विधि को विषय करते हैं। तथा मीमांसकों के ज्योतिष्टोम, अग्निष्टोम, अश्वमेध आदि वाक्यों की प्रमाणता के प्रसंग का विवाद नहीं होना चाहिए। जिससे कि कर्मकाण्ड वाक्यों को पारमार्थिकपना नहीं हो सके। - प्रधानरूप से विधि को विषय करने वाले उपनिषद् वाक्य प्रमाण हैं। ऐसा कहना भी युक्तियों से रहित है। क्योंकि वाक्य के अर्थ विधि को वास्तविक रूप से सत्य मानने पर तो द्वैतवाद का अवतार होता है। अर्थात् - इस कथन से एक विधि और दूसरा ब्रह्म ये दो पदार्थ मान लिये गये हैं। यदि उस श्रोतव्य, मन्तव्य आदि की विधि को अवस्तुभूत असत्य मानोगे तब तो विधि को प्रधानपना घटित नहीं हो सकता