________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 109 दर्शनश्रवणानुमनननिध्यानविधानविरोधात्। तद्विधाने वा सर्वदा तदनुपरतिप्रसक्तिः / दर्शनादिरूपेण तस्यासिद्धौ विधानव्याघातः कूर्मरोमादिवत् / सिद्धरूपेण विधाप्यमानस्य विधानेऽसिद्धरूपेण चाऽविधाने सिद्धासिद्धरू पसंकरात् विधाप्येतरविभागासिद्धेस्तद्रूपासंकरे वा भेदप्रसंगादात्मनः सिद्धासिद्धरूपयोस्तत्संबंधाभावादिदोषासंजननस्याविशेषः। तथा विषयस्य यागलक्षणस्य धर्मे नियोगे तस्यापरिनिष्पन्नत्वात् स्वरूपाभावाद्वाक्येन प्रत्येतुमशक्यत्वस्य विधावपि विषयधर्मे समानत्वात् कुतो . उसी प्रकार नियोगवादी के द्वारा विधिवादी पर वैसा ही उलाहना दिया जा सकता है। जैसे विधान कराये जा रहे पुरुष के धर्म माने गये विधि में भी परिपूर्ण निष्पन्न होकर सिद्ध हो चुके श्रोता नित्य पुरुष के दर्शन, श्रवण, अनुमनन और ध्यान के विधान का विरोध है। .. अर्थात् - जो पहिले दर्शन आदि से रहित हैं, वह परिणामी पदार्थ ही दर्शन आदि का विधान कर सकता है, नित्य कृतकृत्य नहीं। यदि सिद्ध हो चुका पुरुष भी उन दर्शन आदि का विधान करेगा तो सर्वदा ही उन दर्शन आदिकों से विराम नहीं ले सकने का प्रसंग आयेगा। यदि उस आत्मा के धर्मविधि की दर्शन श्रवण आदि स्वरूपों के द्वारा सिद्धि हो चुकी नहीं मानोगे तब तो कच्छपरोम, चन्द्र, आतप आदि के समान उस असिद्ध हो रही असद्रूप विधि के विधान का व्याघात होगा। जो असिद्ध है, उसका विधान नहीं और जिसका विधान है वह सर्वथा असिद्ध पदार्थ नहीं है। यदि विधान करने योग्य का सिद्धस्वरूप के द्वारा विधान मानोगे और असिद्ध से विधान नहीं होना मानोगे तो सिद्ध-असिद्ध स्वरूपों का संकर हो जाने से यह सिद्धरूप विधाप्य है और इससे पृथक् इतना असिद्ध रूप विधान करने योग्य नहीं है, इस प्रकार के विभाग की सिद्धि नहीं हो सकी। यदि उन विधाप्य और अविधाप्य रूपों का एकमेक हो जाना स्वरूपसांकर्य नहीं माना जायेगा तब तो उन दोनों रूपों का आत्मा से भेद हो जाने का प्रसंग आयेगा। सर्वथा भिन्न स्थित उन सिद्ध असिद्ध दो रूपों का आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। .. क्योंकि दोनों का परस्पर में कोई उपकार नहीं है। यदि सम्बन्ध जोड़ने के लिए उपकार की कल्पना की जायेगी तो पूर्व में नियोगवादी के लिए उठाये गये सम्बन्धों का अभाव, उपकार कल्पना का नहीं बन सकना आदि दोषों का प्रसंग वैसा का वैसा ही विधिवादियों के ऊपर लग जायेगा क्योंकि नियोग और विधि में कोई विशेषता नहीं है। आत्मा के उपकार्य मानने पर आत्मा का नित्यपना बिगड़ता है। यदि दो रूपों को उपकार्य माना जायेगा तो सिद्धरूप तो कुछ उपकार झेलता नहीं है और गजशृंग के समान असिद्ध पदार्थ भी किसी की ओर से आये हुए उपकारों को नहीं धार सकता है। (यहाँ नियोगवादी की ओर से आचार्यों ने विधिवादी पर आपादन किया है। उसी प्रकार विधिवादी यदि नियोगवादी पर नियोग का निषेध करने के लिए यों कटाक्ष करें कि) प्राभाकरों की ओर से याग स्वरूप विषय का धर्म यदि नियोग माना जायेगा तो वह याग अभी बनकर परिपूर्ण हआ नहीं है। उपदेश सुनते समय तो उस याग का स्वरूप ही नहीं है। अतः असद्भूत याग के धर्म नियोग के द्वारा निर्णय करने के लिए अशक्यता दोष है।