________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 112 शक्यं, नियोगस्यापि नियोक्तृशब्दधर्मार्थप्रतिघाताभावानुषक्तेः / शब्दस्य सिद्धरूपत्वात्तद्धर्मो नियोगः कथमसिद्धो येनासौ संपाद्यते कस्यचिदित्यपि न मंतव्यं, विधिसंपादनविरोधात् तस्यापि सिद्धोपनिषद्वाक्यधर्मत्वाविशेषात्। प्रसिद्धस्यापि संपादने पुनः पुनस्तत्संपादने प्रवृत्त्यनुपरमात्कथमुपनिषद्वचनस्य प्रमाणता अपूर्वार्थताविरहात् स्मृतिवत् / तस्य वा प्रमाणत्वे नियोगवाक्यं प्रमाणमस्तु विशेषाभावात् / स्यान्मतं, नियोगस्य सर्वपक्षेषु विचार्यमाणस्यायोगात्तद्वचनमप्रमाणं। तेषां हि न तावत्कार्यं शुद्धं नियोगः प्रेरणा नियोज्यवर्जितस्य नियोगस्यासंभवात्। तस्मिन् नियोगसंज्ञाकरणे स्वकंबलस्य कुर्दालिकेति नामांतरकरणमात्रं स्यात् / न च तावता स्वेष्टसिद्धिः। शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्यप्यनेनापास्तं, नियोज्यफलरहितायाः प्रेरणाया: विधायक शब्द का धर्म विधि है इस प्रकार भी विधिवादियों द्वारा निश्चय करना शक्य नहीं है। फिर भी यदि विधायक शब्द के धर्म माने गये विधि का निश्चय कर लेंगे तो नियोग को भी “विश्वजिता यजेत" “ज्योतिष्टोमेन यजेत' इत्यादि नियोक्ता शब्दों के धर्मार्थ का प्रतिघात नहीं हो सकने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् - नियोक्ता शब्दों का धर्म नियोग जान लिया जायेगा। शब्द को कूटस्थ नित्य मानने वाले मीमांसकों . के यहाँ शब्द का परिपूर्ण रूप सिद्ध है। अत: उस शब्द का धर्म नियोग असिद्ध कैसे होगा? जिससे कि वह नियोग कर्मकाण्ड वाक्यों द्वारा किसी भी श्रोता के यहाँ सम्पादित किया जाए। आचार्य कहते हैं कि यह भी विधिवादियों को नहीं मानना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार तो विधि के सम्पादन करने का भी विरोध आता है। आप विधिवादियों के यहाँ उस विधि को भी अनादिकाल से परिपूर्ण सिद्ध स्वरूप वैदिक उपनिषद् वाक्यों का धर्मपना माना गया है। विधि और नियोग में नित्य शब्दों का धर्मपना अन्तररहित है। यदि सर्व अंशों में परिपूर्ण रूप से अच्छा सिद्ध हो चुके पदार्थ का भी संपादन करना माना जाएगा तो पुन: सिद्ध पदार्थ का सम्पादन किया जाएगा और फिर उस सिद्ध हो चुके का भी अनुष्ठान किया जाएगा। इस प्रकार प्रवृत्तियाँ करते-करते कभी विश्राम नहीं मिलेगा। इस कारण स्मृति के समान अपूर्व अर्थ का ग्राहीपना नहीं होने से आत्म प्रतिपादक वैदिक उपनिषद् वचनों को प्रमाणता कैसे आ सकती है? भावार्थ - यहाँ स्मृति का दृष्टान्त नियोगवादी की अपेक्षा से दिया गया है। स्याद्वाद सिद्धान्त में अपूर्व अर्थ की ग्राहिका होने से स्मृति को प्रमाण माना है। यदि फिर भी विधिवादी गृहीत के ग्राहक उन उपनिषद् वचनों को प्रमाण मानेंगे तो नियोगवाक्य भी प्रमाण हो जाएगा, क्योंकि नियोग की अपेक्षा विधि में कोई विशेषता नहीं है अर्थात् - इन दोनों में विशेषता का अभाव है। शंका - यदि नियोग का शुद्ध कार्य आदि (ग्यारह) पक्षों में विचार चलाया जाए तो उस नियोग की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अत: नियोग को कहने वाले उपनिषद् वाक्य प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि सबसे पहिला उन नियोगवादियों का शुद्ध कार्य स्वरूप नियोग तो सिद्ध नहीं हो पाता है। “यजेत' यहाँ पड़ी हुई विधि लिङ् का अर्थ माने गये प्रवर्तकत्वरूप प्रेरणा और स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला नियोज्य श्रोता से वर्जित हो रहे नियोग की असम्भवता है। फिर भी ऐसे उस शुद्ध कार्य में “नियोग" ऐसी वाचक संज्ञा करली जाएगी तब तो यह अपने कंबल का “कुदाली" यह केवल दूसरा नामकरण मात्र होगा। किन्तु उतने मात्र से स्वइष्ट की सिद्धि नहीं हो सकती है।