________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 115 यथा / न हि कटकर्तव्यताविधिरतद्व्यवच्छेदमंतरेण व्यवहारमार्यमवतारयितुं शक्यः / परपरिहारसहितो विधि: शब्दार्थ इति चेत्, तर्हि विधिप्रतिषेधात्मकः शब्दार्थ इति कुतो विध्येकांतवादप्रतिष्ठा प्रतिषेधैकांतवादवत्। स्यान्मतं, परपरिहारस्य गुणीभूतत्वाद्विधेरेव प्रवृत्त्यंगत्वे प्राधान्याद्विधिः शब्दार्थ इति / कथमिदानीं शुद्धकार्यादिरूपनियोगव्यवस्थितिर्न स्यात्? कार्यस्यैव शुद्धस्य प्रवृत्त्यंगतया प्रधानत्वोपपत्तेः, नियोज्यादेः सतोपि गुणीभावात् / तद्वत्प्रेरणादिस्वभावनियोगवादिनां प्रेरणादौ प्रधानताभिप्रायात्। तदितरस्य सतोपि गुणीभावाध्यवसायाधुक्तो नियोगः शब्दार्थः। शुद्धकार्यप्रेरणादिषु स्वाभिप्रायात् कस्यचित्प्रधानभावेपि पराभिप्रायात्प्रधानत्वाभावादन्यतरस्यापि स्वभावस्याव्यवस्थिते कस्यापि शब्दार्थत्वमिति चेत्, तर्हि पुरुषाद्वैतवाद्याशयवशाद्विधेः प्रधानत्वेपि ताथागतमताश्रयणादप्रधानताघटनात् सोपि न प्रतिष्ठामटाट्येत आदि अप्रकृतक अर्थों की व्यावृत्ति किये बिना योग्य व्यवहार मार्ग में प्रवृत्ति करना शक्य नहीं है। द्वितीय पक्ष अनुसार यदि विधिवादी अन्य का परिहार करने से सहित विधि को शब्द का अर्थ मानेंगे, तब तो शब्द का अर्थ विधि और निषेध उभयात्मक सिद्ध होगा। अतः विधिवादियों की केवल विधि एकान्त के पक्ष परिग्रह की प्रतिष्ठा कैसे हो सकती है। जैसे कि बौद्धों के केवल प्रतिषेध करने को वाक्य का अर्थ मानने के पक्ष की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। अर्थात्-विधि और निषेध दोनों ही शब्द के अर्थ व्यवस्थित हैं। केवल विधि और केवल निषेध वाक्य के अर्थ नहीं हैं। : शंका - पर पदार्थों का परिहार करना शब्द का अर्थ है, किन्तु वह पर का परिहार गौण है। प्रधानपने से विधि को ही प्रवृत्ति का हेतुपना देखा जाता है। अर्थात् कर्तव्य कार्य की विधि कर देने से नियुक्त पुरूष की वहाँ तत्काल प्रवृत्ति हो जाती है। अतः शब्द का प्रधानता से अर्थ विधि है। अन्य का निषेध तो शब्द का गौण अर्थ है। समाधान - इस प्रकार अद्वैतवादियों द्वारा स्वपक्ष की पुष्टि किये जाने पर जैनाचार्य कहते हैं कि, इस प्रकार शुद्ध कार्य, शुद्ध प्रेरणा आदि स्वरूप नियोग की व्यवस्था कैसे नहीं होती है ? क्योंकि प्रवृत्ति कराने का मुख्य अंग होने से शुद्ध कार्य को ही प्रधानता प्राप्त हो सकती है। और नियोज्य पुरुष, या विषय, आदि के विद्यमान होने पर भी गौणपना मान लिया जाता है अर्थात् शुद्ध कार्य भी नियोग का अर्थ हो जाता है। पुरुष, शब्द, फल, वहाँ सभी विद्यमान हैं, फिर भी प्रधान होने से शुद्ध कार्य को नियोग कह दिया गया है। शेष सब अप्रधान रूप से शब्द के वाच्य हो जाते हैं। उसी के समान शुद्ध प्रेरणा, कार्य सहिता प्रेरणा आदि स्वरूप नियोग को मानने वाले प्राभाकरों के यहाँ प्रेरणा आदि में प्रधानपने का अंभिप्राय है। और उनसे भिन्न पुरुष, फल आदि पदार्थों के विद्यमान होते हुए भी उनको गौण रूप से शब्द द्वारा जान लिया है। अतः नियोग को शब्द का अर्थ मानना समुचित है। शुद्ध कार्य, शुद्ध प्रेरणा आदि में प्राभाकरों के अपने अभिप्राय से किसी एक को प्रधानपना होने पर भी दूसरे भट्ट, वेदान्ती, बौद्ध आदि के अभिप्राय से प्रधानपना स्वीकृत नहीं किया गया है। अत: शब्द के उन प्रधान अप्रधान दोनों अर्थों में से किसी एक भी स्वभाव रूप नियोग की व्यवस्था नहीं हो पाती है। अतः एक को भी शब्द का वाच्यार्थपना नहीं है। इस प्रकार विधिवादियों के कहने पर आचार्य कहते हैं कि तब तो पुरुषाद्वैतवादी के आशयवश विधि को प्रधानपना होने पर भी बौद्धमत के आश्रय से विधि को