________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 113 प्रलापमात्रत्वात् / प्रेरणासहितं कार्यं नियोग इत्यप्यसंभवि, नियोज्याद्यसंभवे तद्विरोधात् / कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यप्यनेन निरस्तं / कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यप्यसारं; नियोज्यादिनिरपेक्षस्य कार्यस्य प्रवर्तकत्वोपचारायोगात्, कदाचित्क्वचित्परमार्थतस्तस्य तथानुपलंभात्। कार्यप्रेरणयोः संबंधो नियोग इति वचनमसंगतं, ततो भिन्नस्य संबंधस्य संबंधिनिरपेक्षस्य नियोगत्वेनाघटनात्। संबंध्यात्मनः संबंधस्य नियोगत्वमित्यपि दुरन्वयं, प्रेर्यमाणपुरुषनिरपेक्षयोः संबंधात्मनोरपि कार्यप्रेरणयोः नियोगत्वानुपपत्तेः / तत्समुदायनियोगवादोप्यनेन प्रत्याख्यातः / कार्यप्रेरणास्वभावनिर्मुक्तस्तु नियोगो न विधिवादमतिशेते। यत्पुनः ___अर्थात् - प्रेरणा और नियोज्य पुरुष से रहित हो रहे केवल शुद्ध कार्य स्वरूप नियोग से स्वर्ग नहीं मिल सकता है। जैसे कि कंबल को कुदाली मानकर उस कंबल से सड़क का खोदना नहीं हो सकता है। शुद्ध प्रेरणा कर देना नियोग है। यह द्वितीय पक्ष भी इस पूर्वोक्त कथन से निरस्त कर दिया गया है, क्योंकि नियोग को प्राप्त करने योग्य पुरुष और नियोग के फल स्वर्ग से रहित हो रही प्रेरणा को मानना केवल निरर्थक बकवास है। अर्थात् ऐसी प्रेरणा को नियोग स्वरूपपना सिद्ध नहीं हो सकता है। तीसरा पक्ष प्रेरणा से सहित कार्य नियोग है। इस प्रकार कहना भी सम्भावना करने योग्य नहीं है। क्योंकि नियोज्य पुरुष, नियोजक शब्द, आदि के बिमा उस नियोग के हो जाने का विरोध है। अर्थात् कार्य और प्रेरणा से ही नियोग सिद्ध नहीं हो सकता है। चतुर्थ पक्ष कार्य से सहित प्रेरणा नियोग है, यह विशेष्य विशेषण की परावृत्ति कर मान लिया गया कथन भी इस उक्त कथन करके खण्डित कर दिया जाता है। क्योंकि नियोज्य और नियोजक के बिना कोई प्रेरणा नहीं बन सकती है। ___ भविष्य में किये जाने योग्य कार्य को ही उपचार से प्रवर्तकपना नियोग है। यह पाँचवाँ पक्ष भी निस्सार है। क्योंकि नियोज्य, नियोजक आदि की अपेक्षा नहीं रखने वाले कार्य को उपचार से प्रवर्तकपना उपलब्ध नहीं है। नियोगवादियों का कार्य और प्रेरणा के सम्बन्ध को नियोग कथन करना यह वचन भी पूर्वापरसंगति से रहित है। क्योंकि सम्बन्ध वाले कार्य और प्रेरणा स्वरूप सम्बन्धियों से निरपेक्ष तथा उनसे भिन्न पड़े हुए सम्बन्ध को नियोगपना घटित नहीं होता है। कार्य और प्रेरणा रूप सम्बन्धियों से अभिन्न तदात्मक सम्बन्ध को नियोग कहना भी पूर्वापर अन्वय संगति से शून्य है अर्थात् यह बात कठिनता से भी नहीं समझी जा सकती है। क्योंकि प्रेर्यमाण पुरुष की अपेक्षा नहीं रखने वाला सम्बन्ध स्वरूप कार्य और प्रेरणा के सम्बन्ध को नियोगपने की अनुत्पत्ति है। अर्थात् - कार्य और प्रेरणा से तदात्मक हो रहा भी सम्बन्ध जबतक सर्वाधिकारी पुरुष की अपेक्षा नहीं करेगा तब तक कथमपि नियोग नहीं हो सकता है। उन कार्य और प्रेरणा का परस्पर अविनाभावभूत तदात्मक समुदाय हो जाना नियोग है।.. ____ यह नियोगवादियों का सातवाँ पक्ष भी इस सम्बन्ध वाले कथन से ही निराकृत कर दिया गया है। अर्थात् - पुरुष के बिना उन दोनों के समुदाय को नियोग कहना उचित नहीं है। कार्य और प्रेरणा स्वभावों से सर्वथा विनिर्मुक्त हो रहा नियोग तो विधिवाद से अधिक अतिशय धारी नहीं है।