________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 111 सकलवस्तुसाधारणत्वात्। अनुष्ठेयता चेत्प्रतिभाता कोन्यो नियोगो यस्यानुष्ठितिरितिचेत्, तर्हि विधिरपि न प्रतीयमानतया प्रतिष्ठामनुभवति किं तु विधीयमानतया सा चेदनुभूता कोन्यो विधिर्नाम? यस्य विधानमुपनिषद्वाक्यादुपवर्ण्यते / दृष्टव्यादिवाक्येनात्मदर्शनादिविहितं ममेति प्रतीतेरप्रतिक्षेपार्हो विधि: कथमपाक्रियते? किमिदानीमग्निहोत्रादिवाक्येन यागादिविषये नियुक्तोहमिति प्रतीतिर्न विद्यते, येन नियोगः प्रतिक्षिप्यते। सा प्रतीतिरप्रमाणमितिचेत्, विधिप्रतीतिः कथमप्रमाणं न स्यात्? पुरुषदोषरहितवेदवचनोपजनितत्वादितिचेत्, तत एव नियोगप्रतीतिरप्यप्रमाणं मा भूत् सर्वथाप्यविशेषात् / तथापि नियोगस्य विषयधर्मस्यासंभवे विधेरपि तद्धर्मस्य न संभवः। शब्दस्य विधायकस्य च धर्मो विधिरित्यपि न निश्चेतुं ___ शंका - अनुष्ठान करने योग्य के द्वारा ही नियोग अवतिष्ठ है। प्रतीत किये जाने वाले नियोग की अवस्थिति नहीं हो रही है। क्योंकि अनुष्ठेयता तो सम्पूर्ण वस्तुओं में सामान्यरूप से विद्यमान है। यदि वह अनुष्ठेयता प्रतिभास है तो दूसरा नियोग क्या पदार्थ है? जिसका अनुष्ठान करना कर्मकाण्ड वाक्यों से माना जा रहा है? और नहीं प्रतिभास रहे पदार्थ का तो सद्भाव ही नहीं माना जाता है। - इस प्रकार अद्वैतवादियों का पर्यनुयोग होने पर तो विधि भी वर्तमान काल में प्रतीयमानपने करके प्रतिष्ठा का अनुभव नहीं कर रही है। किन्तु वर्तमान में विधान स्वरूप से जानी जा रही है। क्योंकि वह विधीयमानता सभी पदार्थों में साधारण रूप से पायी जाती है। जबकि विधि की विधीयमानता का अनुभव हो चुका तो फिर उससे अन्य कौन सा अंश विधि नाम का शेष रह गया है जिसका कि विधान करना "दृष्टव्यो” इत्यादिक उपनिषदों के वाक्यों से कहा जा रहा है। दृष्टव्य, मन्तव्य, सोहम् इत्यादि वाक्यों के द्वारा मुझको आत्मदर्शन आदि की विधि हो चुकी है। इस प्रकार प्रतीति हो रही है। अत: खण्डन करने योग्य नहीं हो रही विधि नियोगवादियों के द्वारा कैसे निराकृत की जा रही है? इस पर आचार्य कहते हैं कि क्या इस समय अग्निहोत्र, विश्वजित् आदि यागों को कहने वाले वाक्यों के द्वारा मैं याग आदि विषयों में नियुक्त हो गया हूँ ? इस प्रकार की प्रतीति क्या मर गई है? अब विद्यमान नहीं है, जिससे कि विधिवादियों के द्वारा नियोग का खण्डन किया जा रहा है। यदि (विधिवादी) वह नियुक्तपने को कहने वाली प्रतीति प्रमाण नहीं है, ऐसा कहते हैं तो विधि को प्रतिपादन करने वाली विहितपने की प्रतीति भी अप्रमाण क्यों नहीं हो जाएगी। पुरुषों के राग, द्वेष, अज्ञान आदि दोषों से रहित अनादि, अकृत्रिम, वेदवाक्यों से उत्पन्न हुई होने के कारण विधि की प्रतीति तो प्रमाणभूत है। इस प्रकार विधिवादी के कहने पर नियोगवादी भी कह सकते हैं कि उसी प्रकार अपौरुषेय वैदिक वचनों से उत्पन्न नियोग की प्रतीति भी अप्रमाण नहीं हो सकती। सभी प्रकारों से नियोग की अपेक्षा विधि में कोई विशेषता नहीं है। तथापि नियोग को विषय का धर्म होना सम्भव नहीं है। ऐसा मानने पर अपने विषय के धर्म माने गये विधि की भी सम्भावना नहीं हो सकती है। भावार्थ - नियोज्य पुरुष और यागस्वरूप विषय के धर्म नियोग का विधाप्यमान पुरुष के अथवा विधेय के धर्म स्वरूप विधि के साथ सम्पूर्ण अंशों में सादृश्य है। इन दोनों में कोई विशेषता संभव नहीं है