________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 99 तर्हि यत्रार्थे संकेतितः शब्दस्तस्यार्थस्य पुरुषाभिप्रेतस्य प्रतिपादकत्वं तस्य व्यापार इति न शब्दव्यापारो भावना। वक्त्रभिप्रायरूढार्थः कथं? तस्य तथाभिधानात्। तथा च कथमग्निष्टोमादिवाक्येन भावकेन पुरुषस्य यागविषयप्रवृत्तिलक्षणो व्यापारो भाव्यते पुरुषव्यापारेण वा धात्वर्थो यजनक्रियालक्षणो धात्वर्थेन फलं स्वर्गाख्यं, यतो भाव्यभावककरणरूपतया त्र्यंशपरिपूर्णा भावना विभाव्यत इति पुरुषव्यापारो भावनेत्यत्रापि पुरुषो यागादिना स्वर्गं भावयतीति कथ्यते। न चैवं धात्वर्थभावना शब्दार्थः स्वर्गस्यासंनिहितत्वात्। प्रतिपादयितृविवक्षाबुद्धौ प्रतिभासमानस्य शब्दार्थत्वे बौद्ध एव शब्दार्थ इत्यभिमतं स्यात् / तदुक्तं / “वक्तृव्यापारविषयो योर्थो बुद्धौ प्रकाशते / प्रामाण्यं तत्र शब्दस्य नार्थतत्त्वनिबंधनम् / / " इति न भावनावादावतारो मीमांसकस्य, सौगतप्रवेशानुषंगादिति / तथा धात्वर्थो वाक्यार्थ इत्येकांतो विपर्ययः शुद्धस्य भावस्वभावतया कि वक्ता के अभिप्राय में आरूढ़ अर्थ उस शब्द का कैसे माना जाय? तो इसका उत्तर यही है कि उस प्रकार शब्द के द्वारा वह अर्थ कहा जाता है। अतः शब्द भावना का निराकरण हो जाने से “अग्निष्टोम' आदि की भावना कराने वाले वाक्यों के द्वारा अनुष्ठाता पुरुष का याग विषय में प्रवृत्ति कराना स्वरूप व्यापार कैसे भावित हो सकेगा और पुरुष व्यापार के द्वारा याग क्रिया करना स्वरूप धातु अर्थ कैसे भावित किया जावेगा? तथा धातु अर्थ के द्वारा चिरकाल में होने वाला स्वर्ग नामका फल कैसे भावनायुक्त किया जा सकता है? जिससे कि भावना करने योग्य और भावना करने वाला तथा भावना का करण - इन रूपों द्वारा तीन अंशों से परिपूर्ण होती हुई भावना का विचार किया जाता। अथवा तीन अंशवाली भावना आत्मा में विशेषतया भायी जाती रहे ऐसा कहा जा सके। पुरुष का व्यापार भावना है। इस प्रकार भी भट्ट मीमांसकों का कथन होने पर यष्टापुरुष याग आदि करके स्वर्ग की भावना करता है, यह कहा जाता है। किन्तु इस प्रकार धातु अर्थ याग के द्वारा भावना किया गया फल तो शब्द का अर्थ नहीं है। क्योंकि शब्द का अर्थ निकटवर्ती होना चाहिए, और शब्द बोलते समय स्वर्ग तो सन्निहित नहीं है। यदि मीमांसक यों कहें कि यद्यपि उस समय स्वर्ग वहाँ विद्यमान नहीं है, फिर भी वक्ता की विवक्षापूर्वक हुई बुद्धि में स्वर्ग प्रतिभासित है। अत: बुद्धि में सन्निहित हो जाने से शब्द का वाच्यार्थ स्वर्ग हो सकता है। इस पर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बुद्धि में स्थित अर्थ शब्द का वाच्यार्थ है। यह अभिमत होता है। अर्थात् - बौद्धों ने विवक्षा में आरूढ़ हो रहे अर्थ से शब्द का वाचकपन माना है। वह बौद्धों का मत ही भाट्टों को अभिमत हुआ। उनके ग्रन्थ में कहा भी है कि वक्ता के व्यापार का विषय हो रहा जो अर्थ श्रोता की बुद्धि में प्रकाशित है, उस ही अर्थ को कहने में शब्द की प्रमाणता है। वहाँ विद्यमान वास्तविक अर्थ तत्त्व को कारण मानकर शब्द का प्रामाण्य व्यवस्थित नहीं है। वक्ता द्वारा जाना गया अर्थ यदि शिष्य की बुद्धि में प्रकाशित हो गया है, तो उस अंश में शब्द प्रमाण है। ब्राह्म अर्थ हो या नहीं, कोई आकांक्षा नहीं। अत: पुरुषभावना सिद्ध नहीं हुई। यह मीमांसकों के दोनों भावनावादों का अवतार होना प्रमाणों से सिद्ध नहीं है। क्योंकि बौद्धमत के प्रवेश का प्रसंग आता है। अतः भावना वाक्य का अर्थ है, यह मीमांसकों का विपर्ययज्ञान है, जो आहार्य कुश्रुतज्ञान स्वरूप है।