________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 102 तदविद्याविलासः तथा चासत्यो विधिरिति न प्रधानभावेन तद्विषयतोपपत्तिः। स्यान्मतं, न सम्यगवधारित विधे: स्वरूपं भवता तस्यैवमव्यवस्थितत्वात्। प्रतिभासमात्राद्धि पृथग्विधि: कार्यतया न प्रतीयते घटादिवत् प्रेरकतया वा वचनादिवत् / कर्मकरणसाधनतया हि तत्प्रतीतौ कार्यताप्रेरकताप्रत्ययो युक्तो नान्यथा। किं तर्हि द्रष्टव्योऽरेऽयमात्मा श्रोतव्यो अनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य इत्यादि शब्दश्रवणादवस्थांतरविलक्षणेन प्रेरितोहमिति जाताकूतेनाकारेण स्वयमात्मैव प्रतिभाति, स एव विधिरित्युच्यते। तस्य ज्ञानविषयतया संबंधमधितिष्ठतीति प्रधानभावविभावनाविधिर्न विहन्यते, तथाविधवेदवाक्यादात्मन एव विधायकतया बुद्धौ प्रतिभासनात् / तदर्शनश्रवणात्तु मनननिदिध्यासनरूपस्य विधीयमानतयानुभवात् / तथा च स्वयमात्मानं द्रष्टुं श्रोतुमनुमंतु निध्यातुं वा प्रवर्तते, अन्यथा प्रवृत्त्यसंभवेप्यात्मनः प्रेरितोहमित्यत्र गतिरप्रमाणिका स्यात्। ततो नासत्यो विधिर्येन है। उसी को अनुमान वाक्य द्वारा स्पष्ट करते हैं कि जो-जो असत्य होता है, वह-वह प्रधानपन का अनुभव नहीं करता है जैसे कि उन ब्रह्म अद्वैतवादियों के यहाँ अविद्या का विलास असत्य है। अत: उसको अप्रधान माना गया है और उसी प्रकार की यह असत्य विधि है। अत: उस विधि को प्रधानपन से वाक्य का विषय हो जाना सिद्ध नहीं है। अपनी उपर्युक्त मान्यतानुसार अद्वैतवादी यों कहें कि आप जैन या मीमांसकों ने विधि का स्वरूप भले प्रकार नहीं समझा है। जैसा आप समझे हैं इस प्रकार तो उस विधि की व्यवस्था नहीं है। क्योंकि प्रतिभास सामान्य से पृथक् घटादि के समान कार्यरूप से विधि घटित नहीं होती है। और वचन, चेष्टा आदि के समान प्रेरकरूप से भी विधि घटित नहीं होती है। विधीयते यः स विधि: “विधीयतेऽनेन स विधि:" जो विधान किया जाय, या जिसके द्वारा विधान किया जाय। इस प्रकार कर्मसाधन या करण साधन से उस विधिकी प्रतीति हो गयी होती, तब तो कार्यपन और प्रेरकपन स्वरूप से विधि की प्रतीति करना युक्त होता। अन्यथा तो वैसा ज्ञान नहीं हो सकता है तब विधि का स्वरूप क्या है? इसके उत्तर में अद्वैतवादी कहते हैं कि अरे संसारी जीव यह आत्मा दर्शन करने योग्य है, श्रवण करने योग्य है, मनन करने योग्य है, ध्यान करने योग्य है “ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है। इत्यादि शब्दों के सुनने से अन्य अवस्थाओं से विलक्षण होकर उत्पन्न हुई चेष्टा से मैं प्रेरा गया हूँ। इस प्रकार स्वयं आत्मा ही प्रतिभासित होती है। और आत्मा ही विधि इस शब्द करके कही जाती है। उस विधि का ज्ञान विषयरूप से सम्बन्ध को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् - विधि का ज्ञान, विधि में ज्ञान, ये सब अभेद होने से विधिस्वरूप ब्रह्म ही है, अतः विधि को प्रधानरूप से वाक्य अर्थ के विचार का विघात नहीं हो पाता है। क्योंकि इस प्रकार विधि को कहने वाले वेद वाक्यों से आत्मा का ही विधान कर्त्तारूप से बुद्धि में प्रतिभासित होता है। तथा उस आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यानस्वरूपों का विधि के कर्मरूप अनुभव हो रहा है। तथा स्वयं आत्मा ही अपने को देखने के लिए, सुनने के लिए, अनुमनन करने के लिए और ध्यान के लिए प्रवृत्त होती है। अन्यथा (इस प्रकार अभेद से प्रवृत्ति होना असम्भव होता तो) मैं स्वयं आत्मा से प्रेरित हुआ हूँ - इस प्रकार प्रतीति होना अप्रामाणिक हो जाता। अत: सिद्ध होता है कि अद्वैतवादी द्वारा मानी हुई विधि