________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 106 तदेतद्विधिवादिनोपि समानं विधेरपि प्रवृत्तिहेतुत्वायोगस्याविशेषात्। प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः। तस्यापि हि प्रवर्तकस्वभावत्वे वेदांतवादिनामिव प्राभाकरताथागतादीनामपि प्रवर्तकत्वप्रसक्तेरप्रवर्तकस्वभावात्तेषामपि न प्रवर्तको विधिः स्यात्। स्वयमविपर्यस्तास्ततः प्रवर्तते न विपर्यस्ता इति चेत्, कुतः संविभागो विभाव्यतां / प्रमाणाबाधितेतरमताश्रयणादिति चेत्, तर्हि वेदांतवादिनः कथं न विपर्यस्ताः सर्वथा सर्वेकत्वमतस्याध्यक्षविरुद्धत्वात् परस्परनिरपेक्षद्रव्यगुणादिभेदाभेदमननवत् / तद्विपरीतस्यानेकांतस्य जात्यंतरस्य प्रतीतेः। फलरहितश्च विधिर्न प्रवर्तको नियोगवत्। सफलः प्रवर्तक इतिचेत्, किंचिज्ज्ञानां फलार्थिनां फलाय . इस प्रकार विधिवादियों की ओर से विकल्प उठाकर नियोगवादियों के मत का, जैसे यह खण्डन किया गया है, वैसा (विचार) विधिवादियों पर भी वही आपादन समान रूप से लागू हो सकता है, क्योंकि वाक्य के अर्थ विधि को भी प्रवृत्ति का कारणपना नहीं घटित होता है। अप्रवर्तकपने की अपेक्षा विधि की नियोग से कोई विशेषता नहीं है। प्रकरण में प्राप्त हुए विकल्पों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। विधिवादी पर भी वे ही विकल्प उठाये जा सकते हैं। उस विधि का भी स्वभाव यदि नियम से प्रवर्तकपना माना जायेगा तो वेदान्तवादियों के समान प्रभाकर मतानुयायी, बुद्धमतानुयायी, चार्वाक आदि दार्शनिकों की भी अद्वैत में प्रवृत्ति करा देनेपन का प्रसंग विधि को प्राप्त होगा। यदि विधि को अप्रवर्तक स्वभाव वाला माना जायेगा तो अप्रवर्तक स्वभाव वाली विधि से तो वेदान्तवादियों की भी प्रवृत्ति को कराने वाला विधि अर्थ नहीं हो सकेगा। यदि विधिवादी यों कहें कि स्वयं विपर्ययज्ञान को नहीं धारण करने वाले विधिवादी तो उस विधि से प्रवर्त जाते हैं। परन्तु जो मिथ्याज्ञानी हैं वे उस विधि के द्वारा प्रवृत्ति नहीं कर पाते है। इस प्रकार विधिवादियों के कहने पर आचार्य कहते हैं कि उस सम्यग्ज्ञानीपन और मिथ्याज्ञानीपन का विभाग होना किससे निर्णीत किया जायेगा? यदि प्रमाणों के द्वारा अबाधित किए गये मत का आश्रय करने वाले सम्यग्ज्ञानी हैं और इतर यानी प्रमाणों से बाधित मत का आश्रय कर लेने से पुरुष के मिथ्याज्ञान सिद्ध होता है। तब तो वेदान्तवादी ही विपर्ययज्ञान वाले क्यों नहीं विचार लिये जावेंगे ? क्योंकि उनका सर्वथा सबको एक परम ब्रह्मपने की विधि करने का मत तो प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध है अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा अग्नि, जल, सर्प आदि भिन्न-भिन्न नाना पदार्थ प्रतीत होते है। अब “सर्वमेकं' यह विधिवादियों का मन्तव्य प्रमाणों से बाधित है। जैसे कि परस्पर में नही अपेक्षा रखने वाले द्रव्य और गुण या अवयव और अवयवी आदि का सर्वथा भेद तथा अभेद मानना प्रत्यक्षविरुद्ध है। क्योंकि उन सर्वथा भेद या अभेदों से विपरीत तीसरी जाति वाले कथंचित् भेद अभेदस्वरूप अनेकान्त की प्रतीति हो रही है। अर्थात् - द्रव्य, गुण आदि का सर्वथा भेद मानने वाले नैयायिक हैं। सांख्य उनका अभेद मानते हैं। ये दोनों मत प्रमाणों से विरुद्ध है। पर्याय और पर्यायी में कथंचित् भेद, अभेद प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार सर्वथा एकत्व को कहने वाले विधिवादी भी विपर्ययज्ञान वाले हो जाते हैं। नियोग के समान विधि में भी फलरहित और फलसहितपने के विकल्प उठाये जा सकते हैं कि यदि विधि उत्तरकाल में होने वाले फल से रहित है तब तो किसी भी श्रोता को प्रवृत्ति कराने वाली नहीं हो सकती है, जैसे कि फलरहित नियोग प्रवर्तक नहीं माना गया है। यदि फल से सहित विधि प्रवर्तक है, तब तो कुछ