________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 105 वेदवचनादपि नियुक्तः प्रत्यवायपरिहाराय प्रवर्ततां “नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया'' इति वचनात् / कथमिदानीं स्वर्गकाम इति वचनमवतिष्ठते, जुहुयात् जुहोतु होतव्यमिति लिङ्लोट्तव्यप्रत्ययांतनिर्देशादेव नियोगमात्रप्रतिपत्तेः, तत एव च प्रवृत्तिसंभवात् / फलसहितान्नियोगात् प्रवृत्तिफलसिद्धौ च फलार्थिव प्रवर्तिका न नियोगस्तमंतरेणापि फलार्थिनां प्रवृत्तिदर्शनात् / पुरुषवचनान्नियोगे अयमुपालंभो नापौरुषेयाग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे तस्यानुपालभ्यत्वात्। इति न युक्तं, “सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि वचनस्याप्यनुपालभ्यत्वसिद्धेर्वेदांतवादपरिनिष्ठानात्। तस्मान्न नियोगो वाक्यार्थः कस्यचित्प्रवृत्तिहेतुरिति / नियोगवादी कहेंगे कि इस प्रकार कहने पर तो नियुक्त पुरुषभाव आत्मक फल से रहित वैदिक वचन से भी पाप कर्म के परिहार के लिए प्रवृति होती है। धर्मशास्त्र का वचन है कि प्रत्यवायों के त्याग की अभिलाषा से नित्यकर्म और नैमित्तिककर्म अवश्य करने चाहिए। इसी प्रकार फलरहित वेदवचन से भी पाप परिहार का उद्देश्य लेकर प्रवृत्ति हो जाएगी। इस प्रकार नियोगवादियों के कहने पर तो हम विधिवादी कह सकते हैं कि उपर्युक्त प्रकार से नियोग को फलरहित मानने पर प्रभाकरों के फल को दिखलाने वाला “स्वर्गकामः" यह वचन भला कैसे व्यवस्थित हो सकेगा? हवन करें, हवन करो, हवन करना चाहिए। इस प्रकार के लिङ्लकार लोट्लकार तव्य प्रत्ययको अन्त में रखने वाले पदों के निर्देश से ही सामान्य रूप से नियोग की प्रतिपत्ति होना और उससे ही प्रवृत्ति हो जाना सम्भव * हो जाता है। स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाले इस पद को देने की आवश्यकता नहीं है। नियोगवादियों को पूर्वापर विरुद्ध वचन नहीं कहना चाहिए। अभी विधिवादी ही कहता है। यदि द्वितीय पक्ष के अनुसार नियोगवादी फलसहित नियोग से प्रवृत्ति हो जाने की सिद्धि करेंगे तब तो फल की अभिलाषा ही श्रोताओं को कर्मों में प्रवृत्ति करादेने वाली हो जाएगी। नियोग तो प्रवर्तक नहीं हुआ। क्योंकि उस नियोग के बिना भी फल के अर्थी जीवों की प्रवृत्ति होना देखा जाता है अत: नियोग को सफल मानना भी व्यर्थ है। नियोगवादी फिर कहते हैं कि लौकिक पुरुषों के वचन से जहाँ नियोग प्राप्त किया जाता है वहाँ तो आप विधिवादी यह उपर्युक्त उलाहना दे सकते हैं। किन्तु पुरुष प्रयत्न द्वारा नहीं बनाये गये वैदिक अग्निहोत्र आदि वाक्यों से ज्ञात हुए नियोग में उक्त उपालम्भ नहीं आते हैं। निर्दोष वेदवाक्यजन्य वह नियोग तो उपालम्भ प्राप्त करने योग्य नहीं है। इसके उत्तर में विधिवादी कहते हैं कि इस प्रकार नियोगवादियों का कहना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् निश्चय से परम ब्रह्म स्वरूप है। यहाँ कोई पदार्थ भेदरूप नहीं है, इत्यादि वाक्यों की सिद्धि हो जाने से अद्वैत प्रतिपादक वेदान्तवाद की पूर्ण रूप से निर्दोष प्रसिद्धि हो जाती है। अत: वाक्य का अर्थ नियोग नहीं है। जिससे कि किसी जीव की प्रवृत्ति का निमित्तकारण बन सके। “स्यादेतत्" से प्रारम्भ कर "प्रवृत्तिहेतुः" यहाँ तक नियोगवादियों का खण्डन करके विधिवादियों ने अपना मन्तव्य पुष्ट किया है। अब श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान करते हैं।