________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*८७ विपक्षे बाधके वृत्ति समीचीनो यथोच्यते। साधके सति किन्न स्यात्तदाभासस्तथैव सः॥७६॥ साध्याभावे प्रवृत्तेन किं प्रमाणेन बाध्यते / हेतुः किं वा तदेतेनेत्यत्र संशीतिसम्भवः // 77 // साध्यस्याभाव एवायं प्रवृत्त इति निश्चये। विरुद्धो हेतुरुद्भाव्योऽतीतकालो न चापरः // 78 // प्रमाणबाधनं नाम दोष: पक्षस्य वस्तुतः। क्व तस्य हेतुभिम्राणोऽनुत्पन्नेन ततो हतः॥७९॥ सिद्ध साध्ये प्रवृत्तोऽत्राकिंचित्कर इतीरितः। कैश्चिद्धेतुर्न संचिंत्यः स्याद्वादनयशालिभिः॥८०॥ गृहीतग्रहणात्तस्याप्रमाणत्वं यदीष्यते। स्मृत्यादेरप्रमाणत्वप्रसंग: केन वार्यते // 81 // संवादित्वात्प्रमाणत्वं स्मृत्यादेश्चेत्कथं तु तैः। सिद्धेर्थे वर्तमानस्य हेतो: संवादिता न ते॥८२॥ प्रयोजनविशेषस्य सद्भावान्मानता यदि। तदाल्पज्ञानविज्ञानं हेतोः किं न प्रयोजनम् // 83 // विपक्ष में बाधक प्रमाण के प्रवृत्त हो जाने पर जैसे कोई भी हेतु समीचीन हेतु कहा जाता है, उसी प्रकार विपक्ष में साधक प्रमाण के होने पर वह हेतु हेत्वाभास क्यों नहीं होगा? अवश्य हो जायेगा? // 76|| साध्यका अभाव होने पर प्रवृत्त प्रमाण के द्वारा क्या यह हेतु बाधित होता है अथवा हेतु के द्वारा प्रमाण बाधित होता है। इस प्रकार यहाँ संशय होता है। तब तक वह संदिग्धव्यभिचारी हेतु होता है। साध्य के नहीं होने पर (साध्य का अभाव होने पर) ही यह हेतु प्रवृत्त होता है। इस प्रकार निश्चय हो जाने पर विरुद्ध हेत्वाभास का उद्भावन करना चाहिए। अतः व्यभिचारी या विरुद्ध से भिन्न कोई कालातीत नाम का हेत्वाभास नहीं है जो कि “कालात्ययापदिष्ट कालातीत' कहा जाए // 77-78 // - वस्तुत: विचारा जाए तो साध्य का लक्षण इष्ट, अबाधित और असिद्ध किया गया है। अतः साध्यवान् पक्ष का दोष प्रमाणबाधा नामका हो सकता है। उस कालात्ययापदिष्ट का हेतुओं के द्वारा रक्षण कैसे हो सकता है? अत: हेतुओं में उत्पन्न नहीं होने से वैशेषिकों का सिद्धांत नष्ट हो जाता है अर्थात् कालात्ययापदिष्ट कोई अन्य हेतु नहीं है / / 79 / / साध्य के सिद्ध हो चुकने पर प्रवृत्त हआ हेतु अकिंचित्कर है, इस प्रकार किन्हीं विद्वानों ने निरूपण किया है। स्याद्वाद नीति के धारक विद्वानों को अकिंचित्कर को हेतु का दोष नहीं विचारना चाहिए। यदि गृहीत का ही उस हेतु द्वारा ग्रहण हो जाने से उस हेतु या अनुमान को अप्रमाणपना इष्ट किया जायेगा। तब तो गृहीत का ग्राही होने से स्मृति, संज्ञा, तर्क, आदि को भी अप्रमाणपने का प्रसंग हो जाना किसके द्वारा रोका जा सकता है? यदि सफल क्रियाजनकत्व या बाधारहितत्व स्वरूप संवाद से युक्त होने के कारण स्मृति आदि को प्रमाणपना कहोगे तो उन प्रमाणों के द्वारा सिद्ध अर्थ में प्रवर्तरहे हेतु का तुम्हारे यहाँ संवादीपन क्यों नहीं माना जाता // 80-81-82 // . प्रयोजन विशेषका सद्भाव होने से यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि को प्रमाणपना कहोगे तब तो अल्पज्ञानवाले जीवों को शब्द में श्रावणपने आदि का विशेष ज्ञान हो जाना हेतु का प्रयोजन क्यों नहीं मानलिया जाता है? अकिंचित्कर को पृथक् हेत्वाभास मानने वाले विद्वानों ने एक अर्थ में विशेष, विशेषांश को जानने वाले अनेक प्रमाणों का रहनारूप प्रमाणसंप्लव स्वयं इष्ट किया है। इस प्रकार उनके यहाँ इष्ट