________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 89 ततः सर्वप्रमाणानामपूर्वार्थत्वं सन्नये / स्यादकिंचित्करो हेत्वाभासो नैवान्यथार्पणात् // 89 // तत्रापि केवलज्ञानं नाप्रमाणं प्रसज्यते। साद्यपर्यवसानस्य तस्यापूर्वार्थता स्थितेः // 10 // प्रादुर्भूतिक्षणादूर्ध्वं परिणामित्वविच्युतिः। केवलस्यैकरूपित्वादिति चोद्यं न युक्तिमत् // 11 // परापरेण कालेन संबंधात्परिणामि च / सम्बन्धि परिणामित्वे ज्ञातृत्वे नैकमेव हि // 12 // एवं व्याख्यातनिःशेषहेत्वाभाससमुद्भवं / ज्ञानं स्वार्थानुमाभासं मिथ्यादृष्टेर्विपर्ययः // 13 // सर्वमेव विजानीयात् सम्यग्दृष्टेः शुभावह। यथा श्रुतज्ञाने विपर्यासस्तद्वत्संशयोऽनध्यवसायश्च क्वचिदाहार्यः प्रदर्शितस्तथावग्रहादिस्वार्थानुमानपर्यन्तमतिज्ञान भेदेषु प्रतिपादित विपर्यासवत्संशयोनध्यवसायश्च प्रतिपत्तव्यः। सामान्यतो विपर्ययशब्देन मिथ्याज्ञानसामान्यस्याभिधानात्। विवक्षा से विचारा जाय तब तो वह प्रत्युत अन्यथा यानी असद्धेतुओं से भिन्न प्रकार का समीचीन हेतु है। उसमें हेतु का कोई भी दोष संभव नहीं है।८८-८९॥ अपूर्व अर्थ को जानने वाले उन ज्ञानों में केवलज्ञान के अप्रमाण होने का प्रसंग नहीं आता है। क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षय से विवक्षितकाल में उत्पन्न सादि और अनन्तकाल तक रहने वाले उस केवलज्ञान को अपूर्व अर्थ का ग्राहकपना व्यवस्थित हो चुका है।९०॥ - अपनी उत्पत्ति होने के क्षण से ऊपर उत्तरकाल में केवलज्ञान का परिणामीपना विशेषरूपेण च्युत हो जाता है। क्योंकि केवलज्ञान तो सदा एकरूप ही बना रहता है। अर्थात् - जिन त्रिलोक, त्रिकालवर्ती पदार्थों को आज जान रहा है, उन ही को जानता रहेगा। उत्पाद, विनाश और ध्रुवतारूप परिणाम से सहितपना केवलज्ञान में नहीं घटित होता है। इस प्रकार वितर्कणा करना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि, उत्तर उत्तरवर्ती काल के साथ सम्बन्ध हो जाने से उत्पाद और व्ययरूप परिणाम घटित होता है, केवलज्ञान की पूर्व समयवर्ती पर्याय का नाश हो जाता है और उत्तरकाल में नवीन पर्यायकी उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार सम्बन्ध विशिष्ट और परिणामसहित पना होने के कारण केवलज्ञानी ज्ञातापन करके नियम से वह एक ही है - यह ध्रुवता है। अतः वह परिणामीपन से च्युत नहीं होता है, अपितु प्रतिष्ठित है।९१-९२॥ इस प्रकार व्याख्यान किये गये सम्पूर्ण हेत्वाभासों से उत्पन्न हुआ ज्ञान स्वार्थानुमानरूप मतिज्ञान का आभास है। मिथ्यादृष्टि जीव को अनुमान का आभास नामक विपर्ययज्ञान हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव के समीचीन हेतुओं से उत्पन्न हुए सभी ज्ञान प्रमाणरूप होते हुए कल्याणकारी हैं - ऐसा समझ लेना चाहिए // 93 // जिस प्रकार श्रुतज्ञान में आहार्य विपर्यास है, उसी के समान श्रुतज्ञान में आहार्य संशय और आहार्य अनध्यवसाय, भी कहीं-कहीं होता है। यह दिखलाया है। उसी प्रकार अवग्रह को आदि लेकर स्वार्थानुमान पर्यंत मतिज्ञान के भेदों में भी विपर्यास के समान संशय और अनध्यवसाय भी क्वचित् होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। ___क्योंकि सूत्र में सामान्यरूप से कहे गये विपर्यय शब्द के द्वारा सभी मिथ्याज्ञानों का सामान्यपने से कथन हो जाता है।